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  • यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 18
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप्, स्वरः - निषादः
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    वाजे॑वाजेऽवत वाजिनो नो॒ धने॑षु विप्राऽअमृताऽऋतज्ञाः। अ॒स्य मध्वः॑ पिबत मा॒दय॑ध्वं तृ॒प्ता या॑त प॒थिभि॑र्देव॒यानैः॑॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वाजे॑वाज॒ इति॒ वाजे॑ऽवाजे। अ॒व॒त॒। वा॒जि॒नः। नः॒। धने॑षु। वि॒प्राः॒। अ॒मृ॒ताः॒। ऋ॒त॒ज्ञा॒ इत्यृ॑तऽज्ञाः। अ॒स्य। मध्वः॑। पि॒ब॒त॒। मा॒दय॑ध्वम्। तृ॒प्ताः। या॒त॒। प॒थिभि॒रिति॑ प॒थिऽभिः॑। दे॒व॒यानै॒रिति॑ देव॒यानैः॑ ॥१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाजेवाजे वत वाजिनो नो धनेषु विप्रा अमृता ऋतज्ञाः । अस्य मध्वः पिबत मादयध्वन्तृप्ता यात पथिभिर्देवयानैः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वाजेवाज इति वाजेऽवाजे। अवत। वाजिनः। नः। धनेषु। विप्राः। अमृताः। ऋतज्ञा इत्यृतऽज्ञाः। अस्य। मध्वः। पिबत। मादयध्वम्। तृप्ताः। यात। पथिभिरिति पथिऽभिः। देवयानैरिति देवयानैः॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 9; मन्त्र » 18
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    भाषार्थ -
    हे (ऋतज्ञाः) ऋृत¬=सत्य को जानने वाले, (अमृताः) आत्म स्वरूप से नाश रहित, जीवन्मुक्ति-सुख को प्राप्त, (वाजिनः) वेगवान्, (विप्रा:) विद्या और सुशिक्षा से उत्पन्न उत्तम बुद्धि वाले विद्वानो ! तुम लोग--(वाजे वाजे) प्रत्येक संग्राम में (नः) हमारा (अवत) पालन करो, और (अस्य) इस (मध्वः) मधुर रस का (पिबत) पान करो, तथा हमारे [धनेषु] धनों से (तृप्ता:) तृप्त होकर (मादयध्वम्) हर्षित रहो, और (देवयानः) विद्वानों के धर्मयुक्त मार्गों से निरन्तर (यात) गमन करो ॥ ९ । १८ ॥

    भावार्थ - राजपुरुष वेदादि शास्त्रों को पढ़कर, सुशिक्षा से यथार्थ बोध को प्राप्त करके, सदा धार्मिक विद्वानों के मार्ग पर चलें, दुष्टों के मार्ग पर कभी न चलें। शरीर और आत्मा के बल के पालन से ही सदा आनन्द में रहें।॥९ । १८॥

    भाष्यसार - राज-पुरुष और प्रजा-पुरुषों का परस्पर वर्ताव--राजपुरुष-सत्य को जानने वाले, जीवन काल में मुक्ति सुख को प्राप्त करने वाले, शरीर और आत्मा के बल के पालन से वेगवान्, वेदादि शास्त्रों के अध्ययन से तथा उत्तम शिक्षा से यथार्थ बोध को प्राप्त करने वाले हों। वे प्रत्येक सङ्ग्राम में प्रजा का पालन करें। प्रजाजन भी उन्हें मधुर रस का पान करावें। अपने धनों से तृप्त करके उन्हें हर्षित करें। राजपुरुष भी सदा धार्मिक विद्वानों के मार्ग पर चलें, दुष्ट जनों के मार्ग पर कभी न चलें। शरीर और आत्मा के बल की रक्षा करके सदा आनन्द में रहें ॥९। १८ ॥

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