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  • यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 31
    ऋषिः - तापस ऋषिः देवता - अग्न्यादयो मन्त्रोक्ता देवताः छन्दः - स्वराट अति धृति, स्वरः - षड्जः
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    अ॒ग्निरेका॑क्षरणे प्रा॒णमुद॑जय॒त् तमुज्जे॑षम॒श्विनौ॒ द्व्यक्षरेण द्वि॒पदो॑ मनु॒ष्यानुद॑जयतां॒ तानुज्जे॑षं॒ विष्णु॒स्त्र्यक्षरेण॒ त्रील्ँलो॒कानुद॑जय॒त् तानुज्जे॑षं॒ꣳ सोम॒श्चतु॑रक्षरेण॒ चतु॑ष्पदः प॒शूनुद॑जय॒त् तानुज्जे॑षम्॥३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः। एका॑क्षरे॒णेत्येक॑ऽअक्षरेण। प्रा॒णम्। उत्। अ॒ज॒य॒त्। तम्। उत्। जे॒ष॒म्। अ॒श्विनौ॑। द्व्य॑क्षरे॒णेति॒ द्विऽअ॑क्षरेण। द्वि॒पद॑ इति॒ द्वि॒ऽपदः॑। म॒नु॒ष्या᳖न्। उत्। अ॒ज॒य॒ता॒म्। तान्। उत्। जे॒ष॒म्। विष्णुः॑। त्र्य॑क्षरे॒णेति॒ त्रिऽअ॑क्षरेण। त्रीन्। लो॒कान्। उत्। अ॒ज॒य॒त्। तान्। उत्। जे॒ष॒म्। सोमः॑। चतु॑रक्षरे॒णेति॒ चतुः॑ऽअक्षरेण। चतु॑ष्पदः। चतुः॑पद इति॒ चतुः॑ऽपदः। प॒शून्। उत्। अ॒ज॒य॒त्। तान्। उत्। जे॒ष॒म् ॥३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निरेकाक्षरेण प्राणमुदजयत्तमुज्जेषमश्विनौ द्व्यक्षरेण द्विपदो मनुष्यानुदजयतान्तानुज्जेषम् । विष्णुस्त्र्यक्षरेण त्रीँल्लोकानुदजयत्तानुज्जेषँ सोमश्चतुरक्षरेण चतुष्पदः पशूनुदजयत्तानुज्जेषम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। एकाक्षरेणेत्येकऽअक्षरेण। प्राणम्। उत्। अजयत्। तम्। उत्। जेषम्। अश्विनौ। द्व्यक्षरेणेति द्विऽअक्षरेण। द्विपद इति द्विऽपदः। मनुष्यान्। उत्। अजयताम्। तान्। उत्। जेषम्। विष्णुः। त्र्यक्षरेणेति त्रिऽअक्षरेण। त्रीन्। लोकान्। उत्। अजयत्। तान्। उत्। जेषम्। सोमः। चतुरक्षरेणेति चतुःऽअक्षरेण। चतुष्पदः। चतुःपद इति चतुःऽपदः। पशून्। उत्। अजयत्। तान्। उत्। जेषम्॥३१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 9; मन्त्र » 31
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    भाषार्थ -
    हे राजन् ! (अग्निः) आप अग्नि के समान हो, जैसे आप (एकाक्षरेण) 'ओम्' इस ईश्वर के ज्ञापक एकाक्षर शब्द से एवं इस दैवी गायत्री छन्द के समान (प्राणम्) शरीरस्थ प्राण-वायु के समान जिस प्रजाजन को (उदजयत्) उत्कृष्ट नीति से ऊँचा उठाते हो, वैसे उसे मैं भी (उज्जेषम्) उत्कृष्ट नीति से ऊँचा उठाऊँ । हे (अश्विनौ) सूर्य और चन्द्रमा के समान राजा और राजपुरुषो ! आप जैसे--(द्य् क्षरेण) दैवी उष्णिक् छन्द के समान जिन (द्विपदः) दो पैरों वाले (मनुष्यान्) मननशील मनुष्यों को (उज्जयताम्) ऊँचा उठाते हो वैसे उन्हें मैं भी (उज्जेषम्) ऊँचा उठाऊँ। हे सर्वप्रधान पुरुष ! (विष्णुः) आप परमेश्वर के समान न्यायकारी हो, सो आप जैसे (त्र्यक्षरेण) दैवी अनुष्टुप् छन्द के समान जिन (त्रीन्) नाम, जन्म, स्थान रूप (लोकान्) दर्शनीय लोकों को (उदजयत्) उन्नत करते हो वैसे उन्हें मैं भी (उज्जेषम्) उन्नत करूँ। हे न्यायाधीश ! (सोमः) आप ऐश्वर्य के इच्छुक हो सो आप जैसे (चतुरक्षरेण) दैवी बृहती छन्द के समान जिन (चतुष्पदः) चार पैरों वाले हरिण आदि आरण्य पशुओं को (उदजयत्) बढ़ाते हो, वैसे उन्हें मैं भी (उज्जेषम्) बढ़ाऊँ ॥ ९। ३१॥

    भावार्थ - यदि राजा सब प्रजाजनों की उन्नति चाहे तो प्रजाजन भी उसे क्यों न बढ़ावें। यदि राजा उन्नति न चाहे तो प्रजा भी उसको न बढ़ावे ॥ ९ । ३१ ॥

    भाष्यसार - राजा और प्रजा परस्पर को बढ़ावें--राजा अग्नि के समान बढ़ने वाला होता है वह एक अक्षर वाले दैवी गायत्री नामक 'ओम्' इस छन्द के दृष्टान्त से शरीरस्थ एक प्राण के समान प्रजाजन को उत्तम नीति से उन्नत करे, उसे बढ़ावे वैसे प्रजाजन भी राजा को उन्नत किया करे। राजा और राजपुरुष 'अश्विनौ' हैं, सूर्य और चन्द्र के समान उन्नत हैं। वे दोनों दो अक्षरों वाले दैवी उष्णिक् छन्द के समान दो चरणों वाले मनुष्यों को उत्तम नीति से उन्नत करें प्रजाजन भी उन्हें उन्नत किया करें॥

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