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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 17
    ऋषिः - अग्निर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - विराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    तेऽअ॑स्य॒ योष॑णे दि॒व्ये न योना॑ऽ उ॒षासा॒नक्ता॑। इ॒मं य॒ज्ञम॑वतामध्व॒रं नः॑॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते इति॒ ते। अ॒स्य॒। योष॑णे॒ इति॒ योष॑णे। दि॒व्ये इति॑ दि॒व्ये। न। योनौ॑। उ॒षासा॒नक्ता॑। उ॒षसा॒नक्तेत्यु॒षसा॒नक्ता॑। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। अ॒व॒ता॒म्। अ॒ध्व॒रम्। नः॒ ॥१७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तेऽअस्य योषणे दिव्ये न योनाऽउषासानक्ता । इमँयज्ञमवतामध्वरन्नः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ते इति ते। अस्य। योषणे इति योषणे। दिव्ये इति दिव्ये। न। योनौ। उषासानक्ता। उषसानक्तेत्युषसानक्ता। इमम्। यज्ञम्। अवताम्। अध्वरम्। नः॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 17
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    भावार्थ - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे विदुषी स्री गृहकृत्यदक्ष असते तसे अग्नीद्वारा उत्पन्न झालेल्या दिवस व रात्रीमुळे सर्व व्यवहार सिद्ध होतात.

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