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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    इ॒हैवाग्ने॒ऽ अधि॑ धारया र॒यिं मा त्वा॒ निक्र॑न् पूर्व॒चितो॑ निका॒रिणः॑। क्ष॒त्रम॑ग्ने सुयम॑मस्तु॒ तुभ्य॑मुपस॒त्ता व॑र्द्धतां ते॒ऽअनि॑ष्टृतः॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह। ए॒व। अ॒ग्ने॒। अधि॑। धा॒र॒य॒। र॒यिम्। मा। त्वा॒। नि। क्र॒न्। पू॒र्व॒चित॒ इति॑ पूर्व॒ऽचितः॑। नि॒का॒रिण॒ इति॑ निऽका॒रिणः॑ ॥ क्ष॒त्रम्। अ॒ग्ने॒। सु॒यम॒मिति॑ सु॒ऽयम॑म्। अ॒स्तु॒। तुभ्य॑म्। उ॒प॒स॒त्तेत्यु॑पऽस॒त्ता। व॒र्द्ध॒ता॒म्। ते॒। अनि॑ष्टृतः। अनि॑स्तृत॒ इत्यनि॑ऽस्तृतः ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहैवाग्नेऽअधि धारया रयिम्मा त्वा निक्रन्पूर्वचितो निकारिणः । क्षत्रमग्ने सुयममस्तु तुभ्यमुपसत्ता वर्धतान्तेऽअनिष्टृतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इह। एव। अग्ने। अधि। धारय। रयिम्। मा। त्वा। नि। क्रन्। पूर्वचित इति पूर्वऽचितः। निकारिण इति निऽकारिणः॥ क्षत्रम्। अग्ने। सुयममिति सुऽयमम्। अस्तु। तुभ्यम्। उपसत्तेत्युपऽसत्ता। वर्द्धताम्। ते। अनिष्टृतः। अनिस्तृत इत्यनिऽस्तृतः॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 4
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    भावार्थ - हे राजा ! तू नम्र बन, ज्यामुळे वृद्ध लोक तुला थोर समजतील. राज्यात उत्तम नियमांचे पालन झाल्यास राज्य निष्कंटक होऊन राज्याची भरभराट होईल व प्रजाही तुला सर्व श्रेष्ठ मानील.

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