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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 13
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अ॒न्यदे॒वाहुर्वि॒द्याया॑ऽअ॒न्यदा॑हु॒रवि॑द्यायाः। इति॑ शुश्रुम॒ धीरा॑णां॒ ये न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्यत्। ए॒व। आ॒हुः। वि॒द्यायाः॑। अ॒न्यत्। आ॒हुः॒। अवि॑द्यायाः ॥ इति॑। शु॒श्रु॒म॒। धीरा॑णाम्। ये। नः॒। तत्। वि॒च॒च॒क्षि॒रे इति॑ विऽचचक्षि॒रे ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्यदेवाहुर्विद्यायाऽअन्यदाहुरविद्यायाः । इति शुश्रुम धीराणाँ ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अन्यत्। एव। आहुः। विद्यायाः। अन्यत्। आहुः। अविद्यायाः॥ इति। शुश्रुम। धीराणाम्। ये। नः। तत्। विचचक्षिरे इति विऽचचक्षिरे॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 13
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    भावार्थ - अनादी गुणयुक्त चेतनाकडून जो व्यवहार होतो तो अज्ञानयुक्त जडाकडून कधीही होत नाही व जडाने जे प्रयोजन सिद्ध होते ते चेतनाने होत नाही. म्हणून सर्व माणसांनी विद्वानांची संगती, योगविज्ञान व धर्माचरणाने या दोन्हींचा (विद्या व अविद्या) विवेक करून दोन्ही गोष्टींचा उपयोग करून घ्यावा.

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