ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 101/ मन्त्र 1
ऋषि: - जमदग्निभार्गवः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
ऋध॑गि॒त्था स मर्त्य॑: शश॒मे दे॒वता॑तये । यो नू॒नं मि॒त्रावरु॑णाव॒भिष्ट॑य आच॒क्रे ह॒व्यदा॑तये ॥
स्वर सहित पद पाठऋध॑क् । इ॒त्था । सः । मर्त्यः॑ । श॒श॒मे । दे॒वऽता॑तये । यः । नू॒नम् । मि॒त्रावरु॑णौ । अ॒भिष्ट॑ये । आ॒ऽच॒क्रे । ह॒व्यऽदा॑तये ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋधगित्था स मर्त्य: शशमे देवतातये । यो नूनं मित्रावरुणावभिष्टय आचक्रे हव्यदातये ॥
स्वर रहित पद पाठऋधक् । इत्था । सः । मर्त्यः । शशमे । देवऽतातये । यः । नूनम् । मित्रावरुणौ । अभिष्टये । आऽचक्रे । हव्यऽदातये ॥ ८.१०१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 101; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
पदार्थ -
(यः) जो मानव (नूनम्) निश्चय ही (अभिष्टये) अपने इष्ट लक्ष्य की प्राप्ति हेतु (हव्यदातये) ग्रहण योग्य भोग्य की प्राप्ति तथा त्यागने योग्य को त्यागने हेतु (मित्रावरुणौ) प्राण एवं उदान को (आ, चक्रे) अपने अनुकूल कर लेता है (सः) वह (मर्त्यः) मानव (इत्था) इस भाँति (ऋधक्) सचमुच ही (देवतातये) दिव्यता की प्राप्ति हेतु (शशमे) शान्त हो जाता है, दुष्प्रवृत्तियों से निवृत्त हो जाता है॥१॥
भावार्थ - प्राण व उदान को स्व अनुकूल करने से मानव की दुष्प्रवृत्तियाँ शान्त होती हैं और वह दिव्यगुणों के क्षेत्र में प्रविष्ट हो जाता है। पुनश्च शनैः शनैः उसे अभीष्ट लक्ष्य की सिद्धि होती है॥१॥
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