ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 102/ मन्त्र 22
ऋषिः - प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः ; अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒ग्निमिन्धा॑नो॒ मन॑सा॒ धियं॑ सचेत॒ मर्त्य॑: । अ॒ग्निमी॑धे वि॒वस्व॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । इन्धा॑नः । मन॑सा । धिय॑म् । स॒चे॒त॒ । मर्त्यः॑ । अ॒ग्निम् । ई॒धे॒ । वि॒वस्व॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निमिन्धानो मनसा धियं सचेत मर्त्य: । अग्निमीधे विवस्वभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम् । इन्धानः । मनसा । धियम् । सचेत । मर्त्यः । अग्निम् । ईधे । विवस्वऽभिः ॥ ८.१०२.२२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 102; मन्त्र » 22
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 7
पदार्थ -
(मर्त्यः) मानव (अग्निम्) यज्ञार्थ अग्नि को (इन्धानः) प्रदीप्त करता हुआ; (मनसा) अपनी मनन शक्ति से (धियम्) अपनी धारणावती बुद्धि को इस भाँति सचेत सम्बुद्ध करे कि मैं तो (विवस्वभिः) विविध स्थानों पर पहुँचने वाली, अन्धकार हरने वाली किरणों द्वारा (अग्निम्) ज्योति-स्वरूप प्रभु को ही (इन्धे) अपने अन्तःकरण में जागृत कर रहा हूँ॥२२॥
भावार्थ - यज्ञाग्नि, उस ज्योतिः स्वरूप परमात्मा का ही प्रतीक है। इसे यज्ञार्थ प्रदीप्त किया जाता है। इसे प्रदीप्त कर मानव को परमेश्वर का ध्यान करना चाहिये। वह हमारे अज्ञानान्धकार को भगाता है। उसकी स्तुति करना ही उसे प्रदीप्त करना है॥२२॥ अष्टम मण्डल में एक-सौ-दोवाँ सूक्त व बारहवाँ वर्ग समाप्त॥
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