ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 102/ मन्त्र 3
ऋषिः - प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः ; अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वया॑ ह स्विद्यु॒जा व॒यं चोदि॑ष्ठेन यविष्ठ्य । अ॒भि ष्मो॒ वाज॑सातये ॥
स्वर सहित पद पाठत्वया॑ । ह॒ । स्वि॒त् । यु॒जा । व॒यम् । चोदि॑ष्ठेन । य॒वि॒ष्ठ्य॒ । अ॒भि । स्मः॒ । वाज॑ऽसातये ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वया ह स्विद्युजा वयं चोदिष्ठेन यविष्ठ्य । अभि ष्मो वाजसातये ॥
स्वर रहित पद पाठत्वया । ह । स्वित् । युजा । वयम् । चोदिष्ठेन । यविष्ठ्य । अभि । स्मः । वाजऽसातये ॥ ८.१०२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 102; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
पदार्थ -
हे (यविष्ठ्य) पदार्थों के अणु-परमाणुओं का सफल संयोग-वियोग करने वाले परम शक्तिशाली प्रभो! (चोदिष्ठेन) अपने गुणों से अतिशय प्रेरणा प्रदाता (त्वया युजा स्वित्) आपके सहयोग से ही (वयम्) हम उपासक (वाजसातये) विविध प्रकार के ज्ञान, बल, धन, ऐश्वर्य को प्राप्त करने हेतु (अभि ष्मः) सर्वथा सक्षम हैं॥३॥
भावार्थ - भाँति-भाँति के ऐश्वर्य की प्राप्ति का प्रयास, उसके लिये पुरुषार्थ, मानव तभी करता है, जब उसे कहीं से ऐसा करने की प्रेरणा प्राप्त हो। मानव का सर्वाधिक अच्छा प्रेरक, मात्रा में भी तथा गुणों में भी, परमात्मा ही है॥३॥
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