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ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
ये दे॑वास इ॒ह स्थन॒ विश्वे॑ वैश्वान॒रा उ॒त । अ॒स्मभ्यं॒ शर्म॑ स॒प्रथो॒ गवेऽश्वा॑य यच्छत ॥
स्वर सहित पद पाठये । दे॒वा॒सः॒ । इ॒ह । स्थन॑ । विश्वे॑ । वै॒श्वा॒न॒राः । उ॒त । अ॒स्मभ्य॑म् । शर्म॑ । स॒ऽप्रथः॑ । गवे॑ । अश्वा॑य । य॒च्छ॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये देवास इह स्थन विश्वे वैश्वानरा उत । अस्मभ्यं शर्म सप्रथो गवेऽश्वाय यच्छत ॥
स्वर रहित पद पाठये । देवासः । इह । स्थन । विश्वे । वैश्वानराः । उत । अस्मभ्यम् । शर्म । सऽप्रथः । गवे । अश्वाय । यच्छत ॥ ८.३०.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 30; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 37; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 37; मन्त्र » 4
पदार्थ -
(ये देवासः) वे देवता जो (इह स्थन) यहाँ मूर्तरूप में विद्यमान हैं, (उत) अथवा (वैश्वानराः) सभी में सत्यधर्म और सत्य विद्या के प्रकाशक रूप में उपस्थित हैं, (विश्वे) वे सब (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (गवे) ज्ञानशक्ति हेतु (अश्वाय) हमारी कर्मशक्ति के लिये (सप्रथः) चतुर्दिक् से विस्तृत (शर्म) सुख (यच्छत) दें ॥४॥
भावार्थ - मूर्त-अमूर्त सभी देव मानव के लिये सुख प्रदान करने वाले हैं ॥४॥ अष्टम मण्डल में तीसवाँ सूक्त व सैंतीसवाँ वर्ग समाप्त॥
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