ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 32/ मन्त्र 30
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिग्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒र्वाञ्चं॑ त्वा पुरुष्टुत प्रि॒यमे॑धस्तुता॒ हरी॑ । सो॒म॒पेया॑य वक्षतः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्वाञ्च॑म् । त्वा॒ । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । प्रि॒यमे॑धऽस्तुता । हरी॒ इति॑ । सो॒म॒ऽपेया॑य । व॒क्ष॒तः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्वाञ्चं त्वा पुरुष्टुत प्रियमेधस्तुता हरी । सोमपेयाय वक्षतः ॥
स्वर रहित पद पाठअर्वाञ्चम् । त्वा । पुरुऽस्तुत । प्रियमेधऽस्तुता । हरी इति । सोमऽपेयाय । वक्षतः ॥ ८.३२.३०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 32; मन्त्र » 30
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
पदार्थ -
हे (पुरु-स्तुत) अनेकों से स्तुत! (अर्वाञ्चं त्वा) अभिमुख उपस्थित तुझ इन्द्र को (प्रियमेधस्तुता) मेधावियों से प्रशंसित (हरी) जीवन-यात्रा के निर्वाह में समर्थ ज्ञान एवं कर्म इन्द्रियाँ (सोमपेयाय) ऐश्वर्यकारक सारभूत रस का पान कराने हेतु (वक्षतः) ले जाती हैं॥३०॥
भावार्थ - व्यक्ति [इन्द्र] की जो ज्ञान तथा कर्म इन्द्रियाँ भोग्य पदार्थों के सौम्य रस का पान कराएं, उनके व उनके अधिष्ठाता व्यक्ति की अनेक प्रशंसा करते हैं। ॥३०॥ अष्टम मण्डल में बत्तीसवाँ सूक्त व छठा वर्ग समाप्त।
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