ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
ऋषि: - नीपातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
एन्द्र॑ याहि॒ हरि॑भि॒रुप॒ कण्व॑स्य सुष्टु॒तिम् । दि॒वो अ॒मुष्य॒ शास॑तो॒ दिवं॑ य॒य दि॑वावसो ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒न्द्र॒ । या॒हि॒ । हरि॑ऽभिः । उप॑ । कण्व॑स्य । सु॒ऽस्तु॒तिम् । दि॒वः । अ॒मुष्य॑ । शास॑तः । दिव॑म् । य॒य । दि॒वा॒व॒सो॒ इति॑ दिवाऽवसो ॥
स्वर रहित मन्त्र
एन्द्र याहि हरिभिरुप कण्वस्य सुष्टुतिम् । दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इन्द्र । याहि । हरिऽभिः । उप । कण्वस्य । सुऽस्तुतिम् । दिवः । अमुष्य । शासतः । दिवम् । यय । दिवावसो इति दिवाऽवसो ॥ ८.३४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 34; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
पदार्थ -
हे (इन्द्र) ऐश्वर्य प्राप्ति के हेतु प्रयत्नशील जन! तू (हरिभिः) इन्द्रियों, अन्तःकरण एवं प्राणों के साथ (कण्वस्य) बुद्धिमान् की (सुष्टुतिम्) शुभ स्तुति (गुण वर्णन) को (उप याहि) निकट से सुन। (अमुष्य दिवः शासतः) जब तक वह दिव्यगुणी स्तोता उपदेश कर रहा है, उसे सुनकर, हे (दिवावसो) दिव्यता को स्वयं में बसाने की इच्छा वाले साधक! तू (दिवं यय) दिव्यता प्राप्त कर॥१॥
भावार्थ - स्तुति का परिणाम गुणों को धारण करना और अवगुणों को छोड़ना है। बुद्धिमान् द्वारा की गई ईश्वरादि की स्तुति को मानव अपनी इन्द्रियों, अन्तःकरण व प्राणादि साधनों से अपने में बसाए तो वह स्वयं दिव्यगुणी बनता है; ऐसा अवसर न त्यागना चाहिए॥१॥
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