ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 34/ मन्त्र 17
ऋषिः - नीपातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
य ऋ॒ज्रा वात॑रंहसोऽरु॒षासो॑ रघु॒ष्यद॑: । भ्राज॑न्ते॒ सूर्या॑ इव ॥
स्वर सहित पद पाठये । ऋ॒ज्राः । वात॑ऽरंहसः । अ॒रु॒षासः॑ । र॒घु॒ऽस्यदः॑ । भ्राज॑न्ते । सूर्याः॑ऽइव ॥
स्वर रहित मन्त्र
य ऋज्रा वातरंहसोऽरुषासो रघुष्यद: । भ्राजन्ते सूर्या इव ॥
स्वर रहित पद पाठये । ऋज्राः । वातऽरंहसः । अरुषासः । रघुऽस्यदः । भ्राजन्ते । सूर्याःऽइव ॥ ८.३४.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 34; मन्त्र » 17
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 7
पदार्थ -
(ये) जो (ऋजाः) धर्म के सरल मार्ग से जीवन बिताने वाले (वातरंहसः) वायु वेग से गतिशील, [आलस्यहीन] (अरुषासः) परन्तु अहिंसाशील तेजस्वी, (रघुष्यदः) मार्ग को निर्विघ्न करने वाले विद्वान् हैं, वे (सूर्या इव) सूर्य किरणों से प्रकाशित नक्षत्रों के तुल्य (भ्राजन्ते) दीप्त होते हैं॥१७॥
भावार्थ - जो विद्वज्जन स्वयं धर्ममार्ग पर चल कर साधकों के लिए जीवनयात्रा का मार्ग सुगम तथा सुखद बनाते हैं, वे वस्तुतः स्तुत्य हैं; जैसे सूर्य से प्रकाश पाकर आकाश में नक्षत्र चमकते हैं, वैसी ही यशःकान्ति से ये विद्वान् यशस्वी होते हैं॥१७॥
इस भाष्य को एडिट करें