ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 49/ मन्त्र 10
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
यथा॒ कण्वे॑ मघवन्त्र॒सद॑स्यवि॒ यथा॑ प॒क्थे दश॑व्रजे । यथा॒ गोश॑र्ये॒ अस॑नोॠ॒जिश्व॒नीन्द्र॒ गोम॒द्धिर॑ण्यवत् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । कण्वे॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । त्र॒सद॑स्यवि । यथा॑ । प॒क्थे । दश॑ऽव्रजे । यथा॑ । गोऽश॑र्ये । अस॑नोः । ऋ॒जिश्व॑नि । इन्द्र॑ । गोऽम॑त् । हिर॑ण्यऽवत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा कण्वे मघवन्त्रसदस्यवि यथा पक्थे दशव्रजे । यथा गोशर्ये असनोॠजिश्वनीन्द्र गोमद्धिरण्यवत् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । कण्वे । मघऽवन् । त्रसदस्यवि । यथा । पक्थे । दशऽव्रजे । यथा । गोऽशर्ये । असनोः । ऋजिश्वनि । इन्द्र । गोऽमत् । हिरण्यऽवत् ॥ ८.४९.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 49; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
पदार्थ -
हे (मघवन्) ऐश्वर्यसम्पन्न प्रभु! आप जैसे (कण्वे) मेधावी स्तोता के लिये (यथा) जैसे (त्रसदस्यवि) नष्ट करने वाले विचारों या व्यक्तियों को भयभीत कर भगाने वाले साधक के लिए (यथा) जैसे (पक्थे) परिपक्व जीवन वाले (दशव्रजे) दसों इन्द्रियों के आश्रयभूत साधक के लिए (यथा) जैसे (गोशर्ये) इन्द्रियों को प्रेरणा देने वाले साधक के हेतु और (ऋजिश्वनि) सीधे-सादे मार्ग पर चलने वाले, कुटिलतारहित जीवन बिताने वाले साधक के लिए (गोमत्) गौ आदि पशुओं से समृद्ध व (हिरण्यवत्) मनोहारी पदार्थों तथा भावनाओं से समृद्ध ऐश्वर्य (असनोः) प्रदान करते हैं, वैसे सुख की हम प्रार्थना करते हैं॥१०॥
भावार्थ - जब साधक सभी प्रकार के हिंसक शत्रुओं व भावनाओं को दूर भगाने में समर्थ होता है; उसकी इन्द्रियाँ उसके वश में हो जाती हैं, उसके जीवन में कुटिलता का स्थान नहीं रहता, तब उसे मानो भगवान् से सब कुछ प्राप्त हो जाता है॥१०॥ अष्टम मण्डल में उञ्चासवाँ सूक्त व पन्द्रहवाँ वर्ग समाप्त॥
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