ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
ऋषिः - श्रुष्टिगुः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
यथा॒ मनौ॒ सांव॑रणौ॒ सोम॑मि॒न्द्रापि॑बः सु॒तम् । नीपा॑तिथौ मघव॒न्मेध्या॑तिथौ॒ पुष्टि॑गौ॒ श्रुष्टि॑गौ॒ सचा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । मनौ॑ । साम्ऽव॑रणौ । सोम॑म् । इ॒न्द्र॒ । अपि॑बः । सु॒तम् । नीप॑ऽअतिथौ । म॒घ॒ऽव॒न् । मेध्य॑ऽअतिथौ । पुष्टि॑ऽगौ । श्रुष्टि॑ऽगौ । सचा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा मनौ सांवरणौ सोममिन्द्रापिबः सुतम् । नीपातिथौ मघवन्मेध्यातिथौ पुष्टिगौ श्रुष्टिगौ सचा ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । मनौ । साम्ऽवरणौ । सोमम् । इन्द्र । अपिबः । सुतम् । नीपऽअतिथौ । मघऽवन् । मेध्यऽअतिथौ । पुष्टिऽगौ । श्रुष्टिऽगौ । सचा ॥ ८.५१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 51; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
पदार्थ -
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् प्रभु! अपने (यथा) जिस परिमाण में (सांवरणौ) दोषों से या संवरण-आच्छादन बचाव किये हुए (मनौ) मननशील साधक के अन्तःकरण में (सुतम्) निष्पादित (सोमम्) ऐश्वर्यदायक शास्त्रबोध आदि का (अपिबः) संरक्षण किया और जिस मात्रा में (नीपातिथौ) ज्ञान सागर की गहराइयों में गमनशील के अन्तःकरण में, (मेध्यातिथौ) पावनता की ओर निरन्तर गतिशील के अन्तःकरण में व (पुष्टिगौ) इन्द्रियों को पुष्ट रखने वाले साधक के अन्तःकरण में ऐश्वर्यकारक शास्त्रबोधादि का (अपिबः) संरक्षण किया उतनी ही मात्रा में, हे (मघवन्) आदरणीय ऐश्वर्य के स्वामी आप (श्रुष्टिगौ) क्रियाशील [शीघ्रतामय] इन्द्रियों वाले साधक के अन्तःकरण में (सच) एकत्रित करें॥१॥
भावार्थ - ज्ञान-विज्ञान नाना ऐश्वर्यों के प्रदाता हैं; ये कैसे साधक के अन्तःकरण में प्रभु द्वारा प्रेरित होते हैं? इसके उत्तर में बताया है कि विभिन्न दोषों से बचते हुए मनन में रत; गहरा विचार करने वाले, इन्द्रियों को पावन, पुष्ट व सक्रिय रखने वाले साधकों के अन्तःकरण शास्त्र बोध आदि के लिये ईश्वर के द्वारा प्रेरणा पाते रहते हैं॥१॥
इस भाष्य को एडिट करें