ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 52/ मन्त्र 1
यथा॒ मनौ॒ विव॑स्वति॒ सोमं॑ श॒क्रापि॑बः सु॒तम् । यथा॑ त्रि॒ते छन्द॑ इन्द्र॒ जुजो॑षस्या॒यौ मा॑दयसे॒ सचा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । मनौ॑ । विव॑स्वति । सोम॑म् । श॒क्र॒ । अपि॑बः । सु॒तम् । यथा॑ । त्रि॒ते । छन्दः॑ । इ॒न्द्र॒ । जुजो॑षसि । आ॒यौ । मा॒द॒य॒से॒ । सचा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा मनौ विवस्वति सोमं शक्रापिबः सुतम् । यथा त्रिते छन्द इन्द्र जुजोषस्यायौ मादयसे सचा ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । मनौ । विवस्वति । सोमम् । शक्र । अपिबः । सुतम् । यथा । त्रिते । छन्दः । इन्द्र । जुजोषसि । आयौ । मादयसे । सचा ॥ ८.५२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 52; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
पदार्थ -
हे (शक्र) साधना से शक्ति प्राप्त मेरे आत्मा! जिस तरह तू (विवस्वति) अज्ञानान्धकार को दूर भगा ज्ञान के प्रकाश से आलोकित (मनौ) मननशील साधक के हृदय में (सुतम्) उपजे (सोमम्) ऐश्वर्यकारक प्रबोध का (अपिबः) पान करता है और (त्रिते) त्रिविध सुख युक्त साधक के अन्तःकरण में आसीन (छन्दः) सन्तृप्ति सुख जैसे सुख का (जुजोषसि) सतत खूब सेवन करता है, (आयौ) सत्यासत्य के विवेचक साधक के अन्तःकरण में विद्यमान वैसे ही परमानन्द में भी (सचा) संगति के द्वारा (मादयसे) आह्लादित होता है॥१॥
भावार्थ - अज्ञान के अंधकार से रहित, प्रबोधयुक्त साधक का आत्मा एक प्रकार के ऐश्वर्य को पाता है और त्रिविध सुखप्राप्त साधक का आत्मा संतुष्टि से आनन्दित होता है, इसी तरह सत्यासत्य के विवेचक साधक का आत्मा भी दिव्यानन्द में मग्न रहता है॥१॥
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