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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 52/ मन्त्र 3
    ऋषिः - आयुः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    य उ॒क्था केव॑ला द॒धे यः सोमं॑ धृषि॒तापि॑बत् । यस्मै॒ विष्णु॒स्त्रीणि॑ प॒दा वि॑चक्र॒म उप॑ मि॒त्रस्य॒ धर्म॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । उ॒क्था । केव॑ला । द॒धे । यः । सोम॑म् । धृ॒षि॒ता । अपि॑बत् । यस्मै॑ । विष्णुः॑ । त्रीणि॑ । प॒दा । वि॒ऽच॒क्र॒मे । उप॑ । मि॒त्रस्य॑ । धर्म॑ऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य उक्था केवला दधे यः सोमं धृषितापिबत् । यस्मै विष्णुस्त्रीणि पदा विचक्रम उप मित्रस्य धर्मभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । उक्था । केवला । दधे । यः । सोमम् । धृषिता । अपिबत् । यस्मै । विष्णुः । त्रीणि । पदा । विऽचक्रमे । उप । मित्रस्य । धर्मऽभिः ॥ ८.५२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 52; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (यः) जिसने (केवला=केवलानि) विशुद्ध (उक्था=उक्थानि) प्रोत्साहन तथा उपदेश देने योग्य वेदस्थ स्तोत्रों को ही धारा है (यः) जो (धृषिता) दृढ़ व विजयी होने के लक्ष्य से (सोमम्) पौष्टिक ओषधि आदि के रस को (अपिबत्) पीता है और (यस्मै) जिसके हित हेतु (विष्णुः) सर्वव्यापक प्रभु स्वयं (मित्रस्य धर्मभिः) मैत्री के कर्त्तव्यों के साथ मित्रता का निर्वाह करते हुए (त्रीणि) स्वरचित संसार के तीन-चौथाई भाग को (विचक्रमे) सतत सचेष्ट करते हैं--यह जीवात्मा ऐसा है॥३॥

    भावार्थ - प्रभु, प्रकृति आदि पृथ्वी पर्यन्त यह जो सम्पूर्ण जगत् प्रकाशित होता है, सो उसके एक-चौथाई अर्थात् एक देश में बसता है और जो प्रकाशगुणयुक्त (प्रकाशक) जगत् है वह उससे तिगुना है और वह स्वयं मोक्षस्वरूप, सर्वप्रकाशदाता है। बस अपने मित्र जीवात्मा के लाभ हेतु परम प्रभु अपने इस प्रकाशक तीन गुने भाग को सतत रूप से सचेष्ट रखते हैं॥३॥

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