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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 58/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मेध्यः काण्वः देवता - विश्वे देवा ऋत्विजो वा छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यमृ॒त्विजो॑ बहु॒धा क॒ल्पय॑न्त॒: सचे॑तसो य॒ज्ञमि॒मं वह॑न्ति । यो अ॑नूचा॒नो ब्रा॑ह्म॒णो यु॒क्त आ॑सी॒त्का स्वि॒त्तत्र॒ यज॑मानस्य सं॒वित् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । ऋ॒त्विजः॑ । ब॒हु॒धा । क॒ल्पय॑न्तः । सऽचे॑तसः । य॒ज्ञम् । इ॒मम् । वह॑न्ति । यः । अ॒नू॒चा॒नः । ब्रा॒ह्म॒णः । यु॒क्तः । आ॒सी॒त् । का । स्वि॒त् । तत्र॑ । यज॑मानस्य । स॒म्ऽवित् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमृत्विजो बहुधा कल्पयन्त: सचेतसो यज्ञमिमं वहन्ति । यो अनूचानो ब्राह्मणो युक्त आसीत्का स्वित्तत्र यजमानस्य संवित् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । ऋत्विजः । बहुधा । कल्पयन्तः । सऽचेतसः । यज्ञम् । इमम् । वहन्ति । यः । अनूचानः । ब्राह्मणः । युक्तः । आसीत् । का । स्वित् । तत्र । यजमानस्य । सम्ऽवित् ॥ ८.५८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 58; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (यम्) जिस (इमम्) इस (यज्ञम्) पुरुष या मनुष्य के भोग साधन जीवन रूप यज्ञ का (ऋत्विजः) ऋतु अनुकूल संगत हो नियम से कार्य करने वाले मनुष्य के अंग (बहुधा) बारबार (कल्पयन्तः) समर्थ होकर और (सचेतसः) आपस में सहमत तथा जागरूक रहकर (वहन्ति) सञ्चालन करते हैं। फिर जब (यः) कोई (अनूचानः) विद्वान् (ब्राह्मणः) ब्रह्मवेत्ता (युक्तः) सर्वोच्च शक्ति परमात्मा से युक्त हो जाता है, या उससे एकात्म प्राप्त कर लेता है, तब तो (यजमानस्य) यज्ञ के यजमान आत्मा की (संवित्) प्रतिबोध की प्राप्ति (का स्वित्) आश्चर्यजनक हो जाती है॥१॥

    भावार्थ - मानव-जीवन ही आत्मा का भोगसाधन है; उसका जीवन एक यज्ञ ही है जिसके ऋत्विक् शरीर के अंग हैं; वे जब सशक्त तथा परस्पर सहमत होते हुए उसका संचालन करते हैं तो ब्रह्मवेत्ता जीवात्मा को परम प्रभु का सायुज्य मिलता है, यह उस यजमान आत्मा की सर्वोत्कृष्ट आश्चर्यजनक उपलब्धि है। व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने अंगों को सदैव सशक्त बनाए और वे एक-दूसरे के सहायक होकर मानव-जीवन रूपी यज्ञ का संचालन करने में लगे रहें॥१॥

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