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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 69/ मन्त्र 13
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यो व्यतीँ॒रफा॑णय॒त्सुयु॑क्ताँ॒ उप॑ दा॒शुषे॑ । त॒क्वो ने॒ता तदिद्वपु॑रुप॒मा यो अमु॑च्यत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । व्यती॑न् । अफा॑णयत् । सुऽयु॑क्तान् । उप॑ । दा॒शुषे॑ । त॒क्वः । ने॒ता । तत् । इत् । वपुः॑ । उ॒प॒ऽमा । यः । अमु॑च्यत ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो व्यतीँरफाणयत्सुयुक्ताँ उप दाशुषे । तक्वो नेता तदिद्वपुरुपमा यो अमुच्यत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । व्यतीन् । अफाणयत् । सुऽयुक्तान् । उप । दाशुषे । तक्वः । नेता । तत् । इत् । वपुः । उपऽमा । यः । अमुच्यत ॥ ८.६९.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 69; मन्त्र » 13
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (यः) जो ऐश्वर्य इच्छुक साधक (उपदाशुषे) स्व अन्तःकरण में दानशीलता व समर्पणशीलता प्राप्त करने हेतु (व्यतीन्) अपने मार्ग से भटके इन्द्रियाश्वों को (सुयुक्तान्) सुदृढ़ शरीररूपी रथ में संयुक्त (अफाणयत्) कर लेता है, (आत् इत्) तदनन्तर (यः) जो (तक्वः) सहनशील, (नेता) नेता, (वपुः) रूपवान, उपमा आदर्श उपमान होकर (अमुच्यत) विश्रान्ति, मानसिक शान्ति अनुभव करता है॥१३॥

    भावार्थ - जिस आदमी की इन्द्रियाँ अपने वश में न हों वह प्रभु के प्रति आत्मसमर्पण नहीं कर पाता; इस भावना को अर्जित करने हेतु व्यक्ति आत्मसंयमी बने। उसके बाद ही वह मन को अशान्त करने वाली दुश्चिन्ताओं से मुक्ति पा सकता है॥१३॥

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