ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 17
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः
देवता - अग्निर्हर्वीषि वा
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
सोम॑स्य मित्रावरु॒णोदि॑ता॒ सूर॒ आ द॑दे । तदातु॑रस्य भेष॒जम् ॥
स्वर सहित पद पाठसोम॑स्य । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । उत्ऽइ॑ता । सूरे॑ । आ । द॒दे॒ । तत् । आतु॑रस्य । भे॒ष॒जम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमस्य मित्रावरुणोदिता सूर आ ददे । तदातुरस्य भेषजम् ॥
स्वर रहित पद पाठसोमस्य । मित्रावरुणा । उत्ऽइता । सूरे । आ । ददे । तत् । आतुरस्य । भेषजम् ॥ ८.७२.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 17
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
पदार्थ -
हे (मित्रावरुणा) स्नेह व न्यायभावना के प्रतीक भगवन्! (सूरे उदिते) सूर्योदय होने पर, मैं (सोमस्य) सोम नामक बलकारी ओषधि के रस को (आददे) ग्रहण करूँ; कारण कि (तत्) वह ओषधि (आतुरस्य) रोगी की (भेषजम्) ओषधि है अथवा पौष्टिक अन्न आदि के सारभूत वीर्य को अपने शरीर में खपा दूँ; वह पीड़ित की ओषधि है॥१७॥
भावार्थ - पौष्टिक अन्न आदि का रस, विशेषतया सोम नामक बलकारी ओषधि का सार सब रोगों की दवाई है; विभिन्न ओषधियों के गुणों का यत्नपूर्वक अध्ययन करें व उनका यथाविधि सेवन करें॥१७॥
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