ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 77/ मन्त्र 4
एक॑या प्रति॒धापि॑बत्सा॒कं सरां॑सि त्रिं॒शत॑म् । इन्द्र॒: सोम॑स्य काणु॒का ॥
स्वर सहित पद पाठएक॑या । प्र॒ति॒ऽधा । अ॒पि॒ब॒त् । सा॒कम् । सरां॑सि । त्रिं॒शत॑म् । इन्द्रः॑ । सोम॑स्य । का॒णु॒का ॥
स्वर रहित मन्त्र
एकया प्रतिधापिबत्साकं सरांसि त्रिंशतम् । इन्द्र: सोमस्य काणुका ॥
स्वर रहित पद पाठएकया । प्रतिऽधा । अपिबत् । साकम् । सरांसि । त्रिंशतम् । इन्द्रः । सोमस्य । काणुका ॥ ८.७७.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 77; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
पदार्थ -
(इन्द्रः) इन्द्र (एकया) एक (सोमस्य) जल के (त्रिंशतम्) तीसियों (काणुका) मनभाते (सरांसि) सरोवरों को (साकम्) एक साथ (अपिबत्) पी जाता है; या खाली कर देता है॥४॥
भावार्थ - उत्तप्त सूर्य अपनी एक ही किरण से एक साथ जल के भरे तीसियों जलाशय सोख लेता है। इसी तरह नानाविध ऐश्वर्य इच्छुक उपासकों को चाहिये कि वे शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक बल के साधनभूत वीर्य को निष्पन्न करें और उसे यथेष्ट मात्रा में अपनी बाहरी व भीतरी इन्द्रियों से अपने में मिलाएं॥४॥
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