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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 82 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 82/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कुसीदी काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ती॒व्राः सोमा॑स॒ आ ग॑हि सु॒तासो॑ मादयि॒ष्णव॑: । पिबा॑ द॒धृग्यथो॑चि॒षे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ती॒व्राः । सोमा॑सः । आ । ग॒हि॒ । सु॒तासः॑ । मा॒द॒यि॒ष्णवः॑ । पिब॑ । द॒धृक् । यथा॑ । ओ॒चि॒षे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तीव्राः सोमास आ गहि सुतासो मादयिष्णव: । पिबा दधृग्यथोचिषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तीव्राः । सोमासः । आ । गहि । सुतासः । मादयिष्णवः । पिब । दधृक् । यथा । ओचिषे ॥ ८.८२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 82; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (मादयिष्णवः) हर्ष बढ़ाने वाले गुणवान् (तीव्राः) अपने गुणों में प्रबल (सोमासः) ऐश्वर्य प्रापक विविध पदार्थ प्रभु के द्वारा (सुतासः) उत्पादित विद्यमान हैं; (आ गहि) आ, और (यथा ओचिषे) जितनी मात्रा में तू उपयुक्त समझे उतनी में, (दधृक्) निर्भय हो (पिब) उनका उपभोग कर॥२॥

    भावार्थ - प्रभु ने भाँति-भाँति के पदार्थ साधक के उपभोग हेतु बना कर रखे हैं, वे सभी हर्ष देने वाले हैं--हर्ष उत्पन्न करना ही उनका धर्म है; परन्तु साधक उनका उपभोग उपयुक्त मात्रा में ही निर्भय होकर करे--वे हर्षोत्पादक ही रहेंगे; विवेकशून्य उपभोक्ता को वे हानि पहुँचा सकते हैं॥२॥

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