ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 83/ मन्त्र 3
ऋषिः - कुसीदी काण्वः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अति॑ नो विष्पि॒ता पु॒रु नौ॒भिर॒पो न प॑र्षथ । यू॒यमृ॒तस्य॑ रथ्यः ॥
स्वर सहित पद पाठअति॑ । नः॒ । वि॒ष्पि॒ता । पु॒रु । नौ॒भिः । अ॒पः । न । प॒र्ष॒थ॒ । यू॒यम् । ऋ॒तस्य॑ । र॒थ्य्शः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अति नो विष्पिता पुरु नौभिरपो न पर्षथ । यूयमृतस्य रथ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठअति । नः । विष्पिता । पुरु । नौभिः । अपः । न । पर्षथ । यूयम् । ऋतस्य । रथ्य्शः ॥ ८.८३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 83; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
पदार्थ -
हे (ऋतस्य) यथार्थ ज्ञान, कर्म, विचार आदि के (रथ्यः) नेताओ! (यूयम्) आप सब (नौभिः अपः) जैसे नौकाओं से जलप्रवाहों--नदी, तड़ाग, सागर आदि को जीतते या पार करते हैं वैसे ही (नः) हमें (पुरु) बहुत से (विष्पिता=विष्पितानि) इधर से उधर तक फैले (अपः) कर्मों के (पर्षथः) पार लगाते हो॥३॥
भावार्थ - प्राणी जगत् में आकर नाना कर्म करता है। इस कर्मजाल में घिरा वह दिव्य पदार्थों की सहायता से ही पार उतरता है--जैसे नौका की सहायता से नदी आदि सुगमता से पार किये जाते हैं। अतः साधकों को प्रभु प्रदत्त दिव्य पदार्थों की सहायता ग्रहण करनी चाहिये॥३॥
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