ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 84/ मन्त्र 2
क॒विमि॑व॒ प्रचे॑तसं॒ यं दे॒वासो॒ अध॑ द्वि॒ता । नि मर्त्ये॑ष्वाद॒धुः ॥
स्वर सहित पद पाठक॒विम्ऽइ॑व । प्रऽचे॑तसम् । यम् । दे॒वासः॑ । अध॑ । द्वि॒ता । नि । मर्त्ये॑षु । आ॒ऽद॒धुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
कविमिव प्रचेतसं यं देवासो अध द्विता । नि मर्त्येष्वादधुः ॥
स्वर रहित पद पाठकविम्ऽइव । प्रऽचेतसम् । यम् । देवासः । अध । द्विता । नि । मर्त्येषु । आऽदधुः ॥ ८.८४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 84; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(यम्) जिस ज्ञान से अज्ञान समाप्त करने व नेतृत्व गुणविशिष्ट शक्ति को, जो (कविम् इव) क्रान्तिद्रष्टा एवं क्रान्तिकर्मा ऋषि की भाँति (प्रचेतसम्) प्रकृष्टचेता है, (देवासः) विद्वानों ने (मर्त्येषु) मरणधर्मा मानवों में (द्विता) दो प्रकार से--ज्ञानेन्द्रिय एवं कर्मेन्द्रिय रूप से (नि, आदधुः) निश्चित किया है--उस द्विरूपा शक्ति के मैं गुण गाता हूँ॥२॥
भावार्थ - 'अग्नि' शक्ति का द्योतक है; मानवों में इसके रूप दो हैं--ज्ञान स्वरूप व कर्मकर्तृत्व रूप। ये ही ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी इन्द्रियों में दिव्यता धारण करे।
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