ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 86/ मन्त्र 1
ऋषि: - कृष्णो विश्वको वा कार्ष्णिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
उ॒भा हि द॒स्रा भि॒षजा॑ मयो॒भुवो॒भा दक्ष॑स्य॒ वच॑सो बभू॒वथु॑: । ता वां॒ विश्व॑को हवते तनूकृ॒थे मा नो॒ वि यौ॑ष्टं स॒ख्या मु॒मोच॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒भा । हि । द॒स्रा । भि॒षजा॑ । म॒यः॒ऽभुवा॑ । उ॒भा । दक्ष॑स्य । वच॑सः । ब॒भू॒वथुः॑ । ता । वा॒म् । विश्व॑कः । ह॒व॒ते॒ । त॒नू॒ऽकृ॒थे । मा । नः॒ । वि । यौ॒ष्ट॒म् । स॒ख्या । मु॒मोच॑तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उभा हि दस्रा भिषजा मयोभुवोभा दक्षस्य वचसो बभूवथु: । ता वां विश्वको हवते तनूकृथे मा नो वि यौष्टं सख्या मुमोचतम् ॥
स्वर रहित पद पाठउभा । हि । दस्रा । भिषजा । मयःऽभुवा । उभा । दक्षस्य । वचसः । बभूवथुः । ता । वाम् । विश्वकः । हवते । तनूऽकृथे । मा । नः । वि । यौष्टम् । सख्या । मुमोचतम् ॥ ८.८६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 86; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
पदार्थ -
हे (दस्रा) रोग इत्यादि विघ्न मिटाने वाले, (भिषजा) रोगादि से डरे लोगों की रक्षा करने वाले, (मयोभुवा) सुखदाता (उभा) दोनों, प्राण व अपान नामक दिव्य गुणियो! (हि) निश्चय ही तुम (दक्षस्य) समाहितचित या एकाग्र, दृढ़ चेता के (वचसा-वचसि) कहने में (बभूवथुः) रहते हो; (ता वाम्) उन तुम दोनों की, (विश्वकः) सब पर कृपा करने वाला विद्वान् (भिषक् तनु कृधे) देह की रक्षा हेतु (हवते) वन्दना करता है--तुम्हारे गुणों का वर्णन करता हुआ उनका अध्ययन करता है। (नः मा वियौष्टम्) तुम दोनों हमसे अलग न होवो; (सख्या) अपनी मित्रता से हमें (मा मुमोचतम्) मुक्त न करो॥१॥
भावार्थ - शरीर स्वस्थ रखने हेतु मानव के प्राण व अपान ही उसके तथा उसकी इन्द्रियों (देवों) के वैद्य हैं; ध्यान से उनकी गति की जाँच करते रहें; मनुष्य ऐसा प्रयत्न करे कि वे सदैव उसके मित्र एवं उपकारी बने रहें। प्राण व अपान शरीर में ग्रहण (आदान) तथा विसर्जन की क्रियायें हैं; ये जब तक शरीर की सखा हैं, शरीर स्वस्थ रहता है॥१॥
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