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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 87/ मन्त्र 1
    ऋषि: - कृष्णो द्युम्नीको वा वासिष्ठः प्रियमेधो वा देवता - अश्विनौ छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    द्यु॒म्नी वां॒ स्तोमो॑ अश्विना॒ क्रिवि॒र्न सेक॒ आ ग॑तम् । मध्व॑: सु॒तस्य॒ स दि॒वि प्रि॒यो न॑रा पा॒तं गौ॒रावि॒वेरि॑णे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यु॒म्नी । वा॒म् । स्तोमः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । क्रिविः॑ । न । सेके॑ । आ । ग॒त॒म् । मध्वः॑ । सु॒तस्य॑ । सः । दि॒वि । प्रि॒यः । न॒रा॒ । पा॒तम् । गौ॒रौऽइ॑व । इरि॑णे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्युम्नी वां स्तोमो अश्विना क्रिविर्न सेक आ गतम् । मध्व: सुतस्य स दिवि प्रियो नरा पातं गौराविवेरिणे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्युम्नी । वाम् । स्तोमः । अश्विना । क्रिविः । न । सेके । आ । गतम् । मध्वः । सुतस्य । सः । दिवि । प्रियः । नरा । पातम् । गौरौऽइव । इरिणे ॥ ८.८७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 87; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    हे (अश्विना) गृहाश्रम व्यवहार में व्याप्त दम्पती! (वाम्) तुम्हारा (स्तोमः) गुणप्रकाश या शास्त्रों का अध्ययन व अध्यापन कार्य, (सेके) जल की सिंचाई में (क्रिविः) कूप (न) के तुल्य (द्युम्नी) यशस्वी है; (आ गतम्) आओ; (सः) वह उपरोक्त तुम्हारा (स्तोम दिवि) पदार्थ विज्ञान के प्रकाशित करने हेतु आवश्यक, (मध्वः) मधुर (सुतस्य) निष्पादित पदार्थविद्यासार का (प्रियः) अपेक्षित है; हे (नरा) गृहस्थ नर-नारियो! (इरिणे) ऊसर प्रदेश में जैसे (गौरौ) दो मृग नितान्त प्यासे होकर अचानक मिले जल को पीते हैं वैसे तुम, उस पदार्थबोध का (पीतम्) उपभोग करो॥१॥

    भावार्थ - गृहस्थ नर-नारी शास्त्रों का अध्ययन व अध्यापन इस प्रकार करें कि वह सर्वत्र विख्यात हो; जिस कुएँ में काफी जल होता है, सिंचाई हेतु वह विख्यात हो जाता है। फिर उनका अध्ययन-अध्यापन कर्म पदार्थ व विज्ञान के सार को निष्पन्न करने में सहायक हो; उस सार को वे इस तरह ग्रहण करें, जैसे कि ऊसर भूमि में अचानक मिले पानी को प्यासे मृग अधीरता से पीते हैं॥१॥

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