ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 87/ मन्त्र 5
ऋषिः - कृष्णो द्युम्नीको वा वासिष्ठः प्रियमेधो वा
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
आ नू॒नं या॑तमश्वि॒नाश्वे॑भिः प्रुषि॒तप्सु॑भिः । दस्रा॒ हिर॑ण्यवर्तनी शुभस्पती पा॒तं सोम॑मृतावृधा ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नू॒नम् । या॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । अश्वे॑भिः । प्रु॒षि॒तप्सु॑ऽभिः । दस्रा॑ । हिर॑ण्यवर्तनी॒ इति॒ हिर॑ण्यऽवर्तनी । शु॒भः॒ । प॒ती॒ इति॑ । पा॒तम् । सोम॑म् । ऋ॒त॒ऽवृ॒धा॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नूनं यातमश्विनाश्वेभिः प्रुषितप्सुभिः । दस्रा हिरण्यवर्तनी शुभस्पती पातं सोममृतावृधा ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नूनम् । यातम् । अश्विना । अश्वेभिः । प्रुषितप्सुऽभिः । दस्रा । हिरण्यवर्तनी इति हिरण्यऽवर्तनी । शुभः । पती इति । पातम् । सोमम् । ऋतऽवृधा ॥ ८.८७.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 87; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
पदार्थ -
हे (अश्विना) गृहस्थ नर-नारियो! (प्रुषितप्सुभिः) प्राणबल से सिंचित (अश्वैः) बलशाली इन्द्रियों से वहन किये हुए (नूनम्) निश्चय ही (आ यातम् स्व) जीवनयज्ञ में पधारो; अपना जीवन-यज्ञ आरम्भ करो। जीवन-यज्ञ में तुम (दस्रा) दुःखनाशक बने हुए, (हिरण्यवर्तनी) हित व रमणीय मार्ग पर चलने वाले, (शुभस्पती) कल्याण पालक, (ऋतावृधा) यथार्थज्ञान को बढ़ाते हुए (सोमम्) शास्त्रबोधादिरूप ऐश्वर्य के सार का (पातम्) उपभोग करो॥५॥
भावार्थ - ज्ञान एवं कर्मेन्द्रियाँ ही जीवनयात्रा के मुख्य साधक हैं; इन्हें प्राण शक्ति से बलवान् रखते हुए ही सुखपूर्वक जीवनयात्रा सम्भव है। इस भाँति जीवन यात्रा करने वाले नर-नारी दुःखों को नष्ट करते हैं, हित व रमणीय मार्ग का अनुगमन करते हैं, अपने यथार्थ ज्ञान को बढ़ाते हुए सदैव कल्याण बनाए रखते हैं॥५॥
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