ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 90/ मन्त्र 5
ऋषिः - नृमेधपुरुमेधौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पाद्निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
त्वमि॑न्द्र य॒शा अ॑स्यृजी॒षी श॑वसस्पते । त्वं वृ॒त्राणि॑ हंस्यप्र॒तीन्येक॒ इदनु॑त्ता चर्षणी॒धृता॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । इ॒न्द्र॒ । य॒शाः । अ॒सि॒ । ऋ॒जी॒षी । श॒व॒सः॒ । प॒ते॒ । त्वम् । वृ॒त्राणि॑ । हं॒सि॒ । अ॒प्र॒तीनि॑ । एकः॑ । इत् । अनु॑त्ता । च॒र्ष॒णि॒ऽधृता॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्र यशा अस्यृजीषी शवसस्पते । त्वं वृत्राणि हंस्यप्रतीन्येक इदनुत्ता चर्षणीधृता ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । इन्द्र । यशाः । असि । ऋजीषी । शवसः । पते । त्वम् । वृत्राणि । हंसि । अप्रतीनि । एकः । इत् । अनुत्ता । चर्षणिऽधृता ॥ ८.९०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 90; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
पदार्थ -
हे (इन्द्र) इन्द्र! परमेश्वर! बलवान्! राजन्! (त्वम्) तू (यशः असि) इस कीर्तिवाला है कि तू (ऋजीषी) सरलस्वभाव, सरलमार्ग से ले चलता है; हे (शवसस्पते) बल बनाये रखने वाले! (त्वम्) तू एक (इत्) अकेला ही (अप्रतीनि) अदम्य (अनुत्ता) किसी अन्य के द्वारा अतिरस्कृत (वृत्राणि) मार्ग में आने वाले विघ्नों को (चर्षणीधृता) मनुष्यों की धारण शक्ति से (हंसि) नष्ट करता है॥५॥
भावार्थ - उपासक के लिये आवश्यक कि वह भगवान् की सायुज्यता प्राप्त करने का प्रयत्न करे, उसका गुणगान इसी उद्देश्य से किया जाता है। उसके नेतृत्व में दिव्यसुख प्राप्ति का सरलतम मार्ग मिल जाता है जो सब विघ्न-बाधाओं से रहित है।॥५॥
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