ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 99/ मन्त्र 4
अन॑र्शरातिं वसु॒दामुप॑ स्तुहि भ॒द्रा इन्द्र॑स्य रा॒तय॑: । सो अ॑स्य॒ कामं॑ विध॒तो न रो॑षति॒ मनो॑ दा॒नाय॑ चो॒दय॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठअन॑र्शऽरातिम् । व॒सु॒ऽदाम् । उप॑ । स्तु॒हि॒ । भ॒द्राः । इन्द्र॑स्य । रा॒तयः॑ । सः । अ॒स्य॒ । काम॑म् । वि॒ध॒तः । न । रो॒ष॒ति॒ । मनः॑ । दा॒नाय॑ । चो॒दय॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनर्शरातिं वसुदामुप स्तुहि भद्रा इन्द्रस्य रातय: । सो अस्य कामं विधतो न रोषति मनो दानाय चोदयन् ॥
स्वर रहित पद पाठअनर्शऽरातिम् । वसुऽदाम् । उप । स्तुहि । भद्राः । इन्द्रस्य । रातयः । सः । अस्य । कामम् । विधतः । न । रोषति । मनः । दानाय । चोदयन् ॥ ८.९९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 99; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
पदार्थ -
[हे मानव!] (अनर्शरातिम्) निर्दोष दानी, (वसुदा) ऐश्वर्य देने वाले प्रभु की (उपस्तुहि) उसमें विद्यमान गुणों से स्तुति कर; (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवान् के (रातयः) दान (भद्राः) कल्याण करने वाले हैं। (सः) वह प्रभु (विधतः अस्य) यथावत् विविध व्यवहार करने वाले इस साधक के (मनः) मन को (दानाय चोदयन्) दानशीलता हेतु प्रेरणा देता रहता है और इस भाँति इसकी (कामम्) कामना को न नहीं (रोषति) मारता॥४॥
भावार्थ - प्रभु ऐश्वर्य देता है परन्तु उसका दान सदैव निर्दोष तथा कल्याणकारी होता है। अपने भक्त अर्थात् कर्मशील को भी वह ऐसा ही दानशील होने को प्रेरित करता है; जो ऐसा दानी बने उसकी सकल कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं॥४॥
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