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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 99 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 99/ मन्त्र 6
    ऋषिः - नृमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अनु॑ ते॒ शुष्मं॑ तु॒रय॑न्तमीयतुः क्षो॒णी शिशुं॒ न मा॒तरा॑ । विश्वा॑स्ते॒ स्पृध॑: श्नथयन्त म॒न्यवे॑ वृ॒त्रं यदि॑न्द्र॒ तूर्व॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । ते॒ । शुष्म॑म् । तु॒रय॑न्तम् । ई॒य॒तुः॒ । क्षो॒णी इति॑ । शिशु॑म् । न । मा॒तरा॑ । विश्वाः॑ । ते॒ । स्पृधः॑ । श्न॒थ॒य॒न्त॒ । म॒न्यवे॑ । वृ॒त्रम् । यत् । इ॒न्द्र॒ । तूर्व॑सि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनु ते शुष्मं तुरयन्तमीयतुः क्षोणी शिशुं न मातरा । विश्वास्ते स्पृध: श्नथयन्त मन्यवे वृत्रं यदिन्द्र तूर्वसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु । ते । शुष्मम् । तुरयन्तम् । ईयतुः । क्षोणी इति । शिशुम् । न । मातरा । विश्वाः । ते । स्पृधः । श्नथयन्त । मन्यवे । वृत्रम् । यत् । इन्द्र । तूर्वसि ॥ ८.९९.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 99; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    हे (इन्द्र) परमात्मा! (इव) जैसे (मातरा) माता-पिता [अपने] (शिशुम्) अविद्या इत्यादि दोषों को दूर करने में यत्नशील एवं शासनीय प्रिय पुत्र के (अनु ईयतुः) अनुकूल चलते हैं ऐसे ही (क्षोणी) द्युलोक पर्यन्त सभी प्राणी (ते) आपके (तुरयन्तम्) शीघ्र चलने वाले (शुष्मम्) शत्रुभावनाओं का हनन करने वाले बल वीर्य के (अनु ईयतुः) अनुकूल चलते हैं। हे (इन्द्र) प्रभु! (यत्) जब आप (मन्यवे) उत्साह करने के लिए (वृत्रम्) विघ्नकारी अज्ञान को (तूर्वसि) नष्ट करते हैं तब (ते) आपके (विश्वाः) सभी (स्पृधः) स्पर्धालु, काम-क्रोध इत्यादि हमारे दुर्भाव (श्नथयन्त) शिथिल पड़ जाते हैं॥६॥

    भावार्थ - माता-पिता अपने अधीन परन्तु स्व दोषों को क्षीण करने में रत शिशु के अनुकूल आचरण करते हैं। संसार के सभी प्राणी प्रभु के बल के अनुकूल स्व आचरण बना लेते हैं--परमात्मा की शक्ति को सदैव अपने साथ विद्यमान अनुभव करने लगते हैं तो मानव का अज्ञान मिट जाता है और वह आगे बढ़ने को उत्साहित होता है। इस प्रकार उसके अन्तःकरण की सारी दुर्भावनाएं शिथिल हो जाती हैं॥६॥

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