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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 28
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    त्वाम॑ग्ने॒ यज॑माना॒ऽअनु॒ द्यून् विश्वा॒ वसु॑ दधिरे॒ वार्या॑णि। त्वया॑ स॒ह द्रवि॑णमि॒च्छमा॑ना व्र॒जं गोम॑न्तमु॒शिजो॒ विव॑व्रुः॥२८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम्। अ॒ग्ने॒। यज॑मानाः। अनु॑। द्यून्। विश्वा॑। वसु॑। द॒धि॒रे॒। वार्या॑णि। त्वया॑। स॒ह। द्रवि॑णम्। इ॒च्छमा॑नाः। व्र॒जम्। गोम॑न्त॒मिति॒ गोऽम॑न्तम्। उ॒शिजः॑। वि। व॒व्रुः॒ ॥२८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामग्ने यजमानाऽअनु द्यून्विश्वा वसु दधिरे वार्याणि । त्वया सह द्रविणमिच्छमाना व्रजङ्गोमन्तमुशिजो विवव्रुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम्। अग्ने। यजमानाः। अनु। द्यून्। विश्वा। वसु। दधिरे। वार्याणि। त्वया। सह। द्रविणम्। इच्छमानाः। व्रजम्। गोमन्तमिति गोऽमन्तम्। उशिजः। वि। वव्रुः॥२८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 28
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ- হে (অগ্নে) বিদ্বান্ পুরুষ ! (ত্বাম্) আপনার আশ্রয় লইয়া (উশিজঃ) বুদ্ধিমান্ (য়জমানাঃ) সঙ্গতিপূর্ণ ব্যক্তি (ত্বয়া) আপনার (সহ) সঙ্গে (বিশ্বা) সকল (বার্য়্যানি) গ্রহণ করিবার যোগ্য (অনুদূ্যন্) দিবসে (বসু) দ্রব্যগুলিকে (দধিরে) ধারণ করিবে । (দ্রবিণম্) ধনের (ইচ্ছমানাঃ) কামনা করিয়া (গোমন্তম্) সুন্দর কিরণ রূপে যুক্ত (ব্রজম্) মেঘ বা গোস্থানকে (বিবব্রুঃ) বিবিধ প্রকারে গ্রহণ করিবে সেইরূপ আমরাও হইব ॥ ২৮ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, প্রযত্নশীল বিদ্বান্দিগের সঙ্গ করিয়া পুরুষার্থ বলে বিদ্যা ও সুখ নিরন্তর বৃদ্ধি করিতে থাকিবে ॥ ২৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - ত্বাম॑গ্নে॒ য়জ॑মানা॒ऽঅনু॒ দূ্যন্ বিশ্বা॒ বসু॑ দধিরে॒ বার্য়া॑ণি ।
    ত্বয়া॑ স॒হ দ্রবি॑ণমি॒চ্ছমা॑না ব্র॒জং গোম॑ন্তমু॒শিজো॒ বি ব॑ব্রুঃ ॥ ২৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ত্বামগ্ন ইত্যস্য বৎসপ্রীর্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাডার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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