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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 34
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    प्रप्रा॒यम॒ग्निर्भ॑र॒तस्य॑ शृण्वे॒ वि यत्सूर्यो॒ न रोच॑ते बृहद्भाः। अ॒भि यः पू॒रुं पृत॑नासु त॒स्थौ दी॒दाय॒ दै॒व्यो॒ऽअति॑थिः शि॒वो नः॑॥३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रप्रेति॒ प्रऽप्र॑। अ॒यम्। अ॒ग्निः। भ॒र॒तस्य॑। शृ॒ण्वे॒। वि। यत्। सूर्य्यः॑। न। रोच॑ते। बृ॒हत्। भाः। अ॒भि। यः। पू॒रुम्। पृत॑नासु। त॒स्थौ। दी॒दाय॑। दैव्यः॑। अति॑थिः। शि॒वः। नः॒ ॥३४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रप्रायमग्निर्भरतस्य शृण्वे वि यत्सूर्या न रोचते बृहद्भाः । अभि यः पूरुम्पृतनासु तस्थौ दीदाय दैव्योऽअतिथिः शिवो नः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रप्रेति प्रऽप्र। अयम्। अग्निः। भरतस्य। शृण्वे। वि। यत्। सूर्य्यः। न। रोचते। बृहत्। भाः। अभि। यः। पूरुम्। पृतनासु। तस्थौ। दीदाय। दैव्यः। अतिथिः। शिवः। नः॥३४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 34
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ- হে রাজা ও প্রজা পুরুষগণ ! তোমাদিগের উচিত যে, (য়ৎ) যে (অয়ম্) এই (অগ্নিঃ) সেনাপতি (সূর্য়ঃ) সূর্য্যের সমান (বৃহদ্ভাঃ) অত্যন্ত প্রকাশযুক্ত (প্রপ্র) অতিপ্রকর্ষ সহ (রোচতে) প্রকাশিত হয়, (য়ঃ) যে (নঃ) আমাদের (পৃতনাসু) সেনাদিগের মধ্যে (পূরুম্) পূর্ণ বলযুক্ত সেনাধ্যক্ষের নিকট (অভিতস্থৌ) সর্ব প্রকারে স্থিত হইবে (দৈব্যঃ) বিদ্বান্দিগের প্রিয় (অতিথিঃ) নিত্য ভ্রমণকারী অতিথি (শিবঃ) মঙ্গলদাতা বিদ্বান্ পুরুষ (দীদায়) বিদ্যা ও ধর্মকে প্রকাশিত করিবে যাহাকে আমি (ভরতস্য) রাজ্যের রক্ষক (শৃণ্বে) শ্রবণ করি, তাহাকে সেনার অধিপতি কর ॥ ৩৪ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, যে পুণ্যকীর্ত্তি পুরুষের শত্রুমধ্যে বিজয় ও বিদ্যা প্রচার শ্রুত হয়, সেই কুলীন পুরুষকে সেনার যুদ্ধাধিকারী কর ॥ ৩৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - প্রপ্রা॒য়ম॒গ্নির্ভ॑র॒তস্য॑ শৃণ্বে॒ বি য়ৎসূর্য়ো॒ ন রোচ॑তে বৃ॒হদ্ভাঃ । অ॒ভি য়ঃ পূ॒রুং পৃত॑নাসু ত॒স্থৌ দী॒দায়॒ দৈব্যো॒ऽঅতি॑থিঃ শি॒বো নঃ॑ ॥ ৩৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - প্রপ্রায়মিত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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