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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 45
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - यजमानर्त्विजो देवताः छन्दः - भुरिक् प्राजापत्योष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    होता॑ यक्ष॒दिन्द्र॑मृष॒भस्य॑ ह॒विष॒ऽआव॑यद॒द्य म॑ध्य॒तो मेद॒ऽउद्भृ॑तं पु॒रा द्वेषो॑भ्यः पु॒रा पौरु॑षेय्या गृ॒भो घस॑न्नू॒नं घा॒सेऽअ॑ज्राणां॒ यव॑सप्रथमाना सु॒मत्क्ष॑राणा शतरु॒द्रिया॑णामग्निष्वा॒त्तानां॒ पीवो॑पवसनानां पार्श्व॒तः श्रो॑णि॒तः शि॑ताम॒तऽउ॑त्साद॒तोऽङ्गा॑दङ्गा॒दव॑त्तानां॒ कर॑दे॒वमिन्द्रो॑ जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। इन्द्र॑म्। ऋ॒ष॒भस्य॑। ह॒विषः॑। आ। अ॒व॒य॒त्। अ॒द्य। म॒ध्य॒तः। मेदः॑। उद्भृ॑त॒मित्युत्ऽभृ॑तम्। पु॒रा। द्वेषो॑भ्य॒ इति॒ द्वेषः॑ऽभ्यः। पु॒रा। पौरु॑षेय्याः। गृ॒भः। घस॑त्। नू॒नम्। घा॒सेऽअ॑ज्राणा॒मिति॑ घा॒सेऽअ॑ज्राणाम्। यव॑सप्रथमाना॒मिति॒ यव॑सऽप्रथमानाम्। सु॒मत्क्ष॑राणा॒मिति॑ सु॒मत्ऽक्ष॑राणाम्। श॒त॒रु॒द्रिया॑णा॒मिति॑ शतऽरु॒द्रिया॑णाम्। अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्ताना॑म्। अ॒ग्नि॒स्वा॒त्ताना॒मित्य॑ग्निऽस्वा॒त्ताना॑म्। पीवो॑पवसनाना॒मिति॒ पीवः॑ऽउपवसनानाम्। पा॒र्श्व॒तः श्रो॒णि॒तः। शि॒ता॒म॒तः। उ॒त्सा॒द॒त इत्यु॑त्ऽसाद॒तः। अङ्गा॑दङ्गा॒दित्यङ्गा॑त्ऽअङ्गात्। अव॑त्तानाम्। कर॑त्। ए॒वम्। इन्द्रः॑। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षदिन्द्रमृषभस्य हविषऽआवयदद्य मध्यतो मेद उद्भृतम्पुरा द्वेषोभ्यः पुरा पौरुषेय्या गृभो घसन्नूनङ्घासेऽअज्राणाँयवसप्रथमानाँ सुमत्क्षराणाँ शतरुद्रियाणामग्निष्वात्तानाम्पीवोपवसानाम्पार्श्वतः श्रोणितः शितामतऽउत्सादतोङ्गादङ्गादवत्तानाङ्करदेवमिन्द्रो जुषताँ हविर्हातर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। इन्द्रम्। ऋषभस्य। हविषः। आ। अवयत्। अद्य। मध्यतः। मेदः। उद्भृतमित्युत्ऽभृतम्। पुरा। द्वेषोभ्य इति द्वेषःऽभ्यः। पुरा। पौरुषेय्याः। गृभः। घसत्। नूनम्। घासेऽअज्राणामिति घासेऽअज्राणाम्। यवसप्रथमानामिति यवसऽप्रथमानाम्। सुमत्क्षराणामिति सुमत्ऽक्षराणाम्। शतरुद्रियाणामिति शतऽरुद्रियाणाम्। अग्निष्वात्तानाम्। अग्निस्वात्तानामित्यग्निऽस्वात्तानाम्। पीवोपवसनानामिति पीवःऽउपवसनानाम्। पार्श्वतः श्रोणितः। शितामतः। उत्सादत इत्युत्ऽसादतः। अङ्गादङ्गादित्यङ्गात्ऽअङ्गात्। अवत्तानाम्। करत्। एवम्। इन्द्रः। जुषताम्। हविः। होतः। यज॥४५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 45
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ- হে (হোতঃ) দাতা ! যেমন (হোতা) গ্রহীতা পুরুষ (ঘাসেঅজ্রাণাম্) ভোজন করিতে প্রাপ্তিকারী (য়বসপ্রথমানাম্) যবাদি অন্ন অথবা মিশ্রিত পদার্থগুলিকে বিস্তারকারী এবং (সুমৎক্ষরাণাম্) ভালমত প্রমাদ নষ্টকারী (অগ্নিষ্বাত্তানাম্) জঠরাগ্নি অর্থাৎ পেটের ভিতর নিবাসকারী অগ্নি দ্বারা গৃহীত অন্ন (পীবোপবসনানাম্) স্থূল ও দৃঢ় আচ্ছাদন (শতরুদ্রিয়াণাম্) এবং শত শত দুষ্টদিগকে রোদনকারী (অবত্তানাম্) উদারচিত্ত বিদ্বান্দিগের (পর্শ্বতঃ) এবং পাশের অঙ্গ অথবা (শ্রোণিতঃ) ক্রমপূর্বক অথবা (শিতামতঃ) তীক্ষ্নতাসহ যদ্দ্বারা রোগ ছিন্ন-ভিন্ন হইয়া গিয়াছে সেই অঙ্গ অথবা (উৎসাদতঃ) ত্যাগমাত্র অথবা (অঙ্গাদঙ্গাৎ) প্রত্যেক অঙ্গ দ্বারা (হবিঃ) রোগ বিনাশকারী বস্তু এবং (ইন্দ্রম্) পরমৈশ্বর্য্যকে সিদ্ধ (করৎ) করিবে এবং (ইন্দ্রঃ) পরম ঐশ্বর্য্যযুক্ত রাজা তাহার (জুষতাম্) সেবন করিবে তথা সেই রাজা যেমন (অদ্য) আজ (ঋষভস্য) উত্তম (হবিষঃ) গ্রহণীয় পদার্থের (মধ্যতঃ) মধ্যে উৎপন্ন (মেদঃ) স্নিগ্ধ পদার্থ (উদ্ভৃতম্) যাহা উত্তমতাপূর্বক পুষ্ট করা হইয়াছে অর্থাৎ সামলানো হইয়াছে তাহাকে (আ, অজয়ৎ) ব্যাপ্ত হউক (দ্বেষোভ্যঃ) শত্রুদের দ্বারা (পুরা) প্রথম (গৃভঃ) গ্রহণীয় (পৌরুষেয়্যাঃ) পুরুষ সম্পর্কীয় বিদ্যা দ্বারা (পুরা) প্রথমে (নূনম্) নিশ্চয় সহ (য়ক্ষৎ) সৎকার করিবে অথবা (এবম্) এই প্রকার (ঘসৎ) ভোজন করিবে, সেইৱূপ তুমি (য়জ) সকল ব্যবহারের সঙ্গতি করিতে থাক ॥ ৪৫ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্য বিদ্বান্দিগের সঙ্গ দ্বারা দুষ্টদিগের নিবারণ তথা শ্রেষ্ঠ উত্তম ব্যক্তিদিগের সৎকার করিবার যোগ্য পদার্থকে লইয়া এবং অন্যান্যকে গ্রহণ করাইয়া সকলের উন্নতি করে তাহারা সৎকার করিবার যোগ্য হয় ॥ ৪৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - হোতা॑ য়ক্ষ॒দিন্দ্র॑মৃষ॒ভস্য॑ হ॒বিষ॒ऽআব॑য়দ॒দ্য ম॑ধ্য॒তো মেদ॒ऽউদ্ভৃ॑তং পু॒রা দ্বেষো॑ভ্যঃ পু॒রা পৌর॑ুষেয়্যা গৃ॒ভো ঘস॑ন্নূ॒নং ঘা॒সেऽঅ॑জ্রাণাং॒ য়ব॑সপ্রথমানাᳬं সু॒মৎক্ষ॑রাণাᳬं শতরু॒দ্রিয়া॑ণামগ্নিষ্বা॒ত্তানাং॒ পীবো॑পবসনানাং পার্শ্ব॒তঃ শ্রো॑ণি॒তঃ শি॑তাম॒তऽউ॑ৎসাদ॒তোऽঙ্গা॑দঙ্গা॒দব॑ত্তানাং॒ কর॑দে॒বমিন্দ্রো॑ জু॒ষতা॑ᳬं হ॒বির্হোত॒র্য়জ॑ ॥ ৪৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - হোতেত্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । য়জমানর্ত্বিজো দেবতাঃ । পূর্বস্য ভুরিক্প্রাজাপত্যোষ্ণিক্ ছন্দঃ । আবয়দিত্যুত্তরস্য ভুরিগভিকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ।

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