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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 78
    ऋषिः - अगस्त्य ऋषिः देवता - इन्द्रामरुतौ देवते छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    ब्रह्मा॑णि मे म॒तयः॒ शꣳसु॒तासः॒ शुष्म॑ऽइयर्त्ति॒ प्रभृ॑तो मे॒ऽअद्रिः॑।आ शा॑सते॒ प्रति॑ हर्य्यन्त्यु॒क्थेमा हरी॑ वहत॒स्ता नो॒ऽअच्छ॑॥७८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रह्मा॑णि। मे॒। म॒तयः॑। शम्। सु॒तासः॑। शुष्मः॑। इ॒य॒र्त्ति॒। प्रभृ॑त॒ इति॒ प्रभृ॑तः। मे॒। अद्रिः॑ ॥ आ। शा॒स॒ते॒। प्रति॑। ह॒र्य्य॒न्ति॒। उ॒क्था। इ॒मा। हरी॒ऽइति॒ हरी॑। व॒ह॒तः॒। ता। नः॒। अच्छ॑ ॥७८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्माणि मे मतयः शँ सुतासः शुष्मऽइयर्ति प्रभृतो मेऽअद्रिः । आ शासते प्रतिहर्यन्त्युक्थेमा हरी वहतस्ता नोऽअच्छ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्माणि। मे। मतयः। शम्। सुतासः। शुष्मः। इयर्त्ति। प्रभृत इति प्रभृतः। मे। अद्रिः॥ आ। शासते। प्रति। हर्य्यन्ति। उक्था। इमा। हरीऽइति हरी। वहतः। ता। नः। अच्छ॥७८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 78
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    भावार्थ - ভাবার্থঃ- হে বিদ্বান্গণ ! যে কর্ম দ্বারা বিদ্যা ও মেঘের উন্নতি হয় তাহার ক্রিয়া কর । যাহারা তোমার নিকট বিদ্যা ও সুশিক্ষা কামনা করে তাহাদেরকে প্রীতিপূর্বক দাও এবং যাহারা তোমার অপেক্ষা অধিক বিদ্যা সম্পন্ন তাহাদের নিকট হইতে বিদ্যা গ্রহণ কর ॥ ৭৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - ব্রহ্মা॑ণি মে ম॒তয়ঃ॒ শꣳসু॒তাসঃ॒ শুষ্ম॑ऽইয়র্ত্তি॒ প্রভৃ॑তো মে॒ऽঅদ্রিঃ॑ ।
    আ শা॑সতে॒ প্রতি॑ হর্য়্যন্ত্যু॒ক্থেমা হরী॑ বহত॒স্তা নো॒ऽঅচ্ছ॑ ॥ ৭৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ব্রহ্মাণীত্যস্য অগস্ত্য ঋষিঃ । ইন্দ্রামরুতৌ দেবতে । বিরাট্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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