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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 181 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 181/ मन्त्र 2
ऋषिः - सप्रथो भारद्वाजः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अवि॑न्द॒न्ते अति॑हितं॒ यदासी॑द्य॒ज्ञस्य॒ धाम॑ पर॒मं गुहा॒ यत् । धा॒तुर्द्युता॑नात्सवि॒तुश्च॒ विष्णो॑र्भ॒रद्वा॑जो बृ॒हदा च॑क्रे अ॒ग्नेः ॥
स्वर सहित पद पाठअवि॑न्दन् । ते । अति॑ऽहितम् । यत् । आसी॑त् । य॒ज्ञस्य॑ । धाम॑ । प॒र॒मम् । गुहा॑ । यत् । धा॒तुः । द्युता॑नात् । स॒वि॒तुः । च॒ । विष्णोः॑ । भ॒रत्ऽवा॑जः । बृ॒हत् । आ । च॒क्रे॒ । अ॒ग्नेः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अविन्दन्ते अतिहितं यदासीद्यज्ञस्य धाम परमं गुहा यत् । धातुर्द्युतानात्सवितुश्च विष्णोर्भरद्वाजो बृहदा चक्रे अग्नेः ॥
स्वर रहित पद पाठअविन्दन् । ते । अतिऽहितम् । यत् । आसीत् । यज्ञस्य । धाम । परमम् । गुहा । यत् । धातुः । द्युतानात् । सवितुः । च । विष्णोः । भरत्ऽवाजः । बृहत् । आ । चक्रे । अग्नेः ॥ १०.१८१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 181; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 39; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 39; मन्त्र » 2
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज -
भाषार्थः (ते) वे अग्न्यादि ऋषि (अविन्दन्) उस वेदज्ञान को प्राप्त करते हैं (अतिहितम्-आसीत्) जो गुप्त था (यज्ञस्य परमं धाम) अध्यात्मयज्ञ का परम स्थान (यत्-गुहा बृहत्) जो मन के (हृदय में) अन्दर स्थित होता है। (अग्नेः) अग्रणी विद्वान् (भरद्वाजः) जो प्रजा को धारण करता है (आचक्रे) भली भाँति वेदवाणी को ग्रहण करता है (धातुः-द्युतानात् सवितुः-विष्णोः) अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा के पास से ॥
शृङ्गी मुनि कृष्ण दत्त जी महाराज
इसी प्रकार जब प्रत्येक इन्द्रिय और मन आदि सब मनुष्य के शासन में रहता है और यह आत्मा यज्ञमान होकर, इन सबकी सामग्री बना करके, ज्ञान रूपी यज्ञशाला में आहुति देने वाला बनता है, उस आत्मा का प्रभाव संसार में इस प्रकार ओत प्रोत हो जाता है, जैसे वेद का प्रत्येक मन्त्र, ओ३म् की ध्वनि में बिंधा हुआ है। इन्द्रियों से आहार कर रहा है उसकी स्थिति सबकी हृदय में है। चक्षु रुप ले रहा है उसकी स्थिति हृदय में है। त्वचा से प्रीति ग्रहण कर रहा है उसकी स्थिति हृदय मे है। घ्राण से मन्द सुगन्ध ले रहा है उसकी स्थिति हृदय में है।
मेरे प्यारे! देखो, ऋषि ने जब यह उत्तर दिया तो देवी बड़ी प्रसन्न हुई। देवी ने कहा यह तो बड़े बुद्धिमान हैं! उन्होंने पुनः कहा प्रभु! यह उद्गाता कौन है? उद्गीत कौन गाता है? उन्होंने कहा उद्गीत वह गाता है,? जो अपने हृदय को, मानो देखो, देवता से उसका समन्वय रहता है, जैसे नेत्रों की जो ज्योति है, वह रूप को लाता है हृदय में परणित कर देता है और घ्राण से सुगन्ध लाता है, मन्द सुगन्ध लाता है, वह भी हृदय में प्रविष्ट हो जाती है, देखो, श्रोतो से शब्दों को लाता है, वह भी हृदय में प्रविष्ट हो जाती है, त्वचा से प्रीति लाता है, वह हृदय में प्रविष्ट हो जाती है, मानो इसी प्रकार देखो, वाणी, नाना प्रकार के वाक्य को ला करके और हृदय में उसकी स्थिति हो जाती है। इसी प्रकार यज्ञमान का जो हृदय है, वह यज्ञशाला है। और, उद्गाता वह कहलाता है, जो हृदय से गान गा करके और मानो देखो, सर्वत्रता को, अपनी आभा को याग में परणित कर देता है। उद्गाता के रूप में ही जैसे आध्यात्मिक विज्ञानवेत्त रूप, रस और गन्ध को ले करके अपनी अन्तरात्मा में ज्ञानरूपी अग्नि में याग करते हैं। जब याग करते हैं तो यागां ब्रह्मे व्रतां, मेरे प्यारे! देखो, वह याग हो रहा है। आध्यात्मिक प्रवृत्तियों में मानो अपने प्रभु को जानने के लिए तत्पर हो रहा है।
यज्ञशाला में यज्ञमान याग करता है होता जनों के सहित। जितना भी हृदय पवित्र होगा, जितनी भी मानवाता पवित्र होगी उतना उसका चित्र द्यौ लोक को चला जाता है। अन्तरिक्ष में उसकी स्थिरता हो जाती है। जितना भी अशुद्ध वाक होता है, हृदय से नहीं होता उतना ही वह जो आहुति है वह पृथ्वी में चयन करने लगती है तो चयन का अभिप्राय यह कि वह अन्तरिक्ष में निचले स्थान में ओत प्रोत हो जाती है क्योंकि उसमें कोई रहस्य नहीं होता। उसमें कोई महत्ता नहीं होती। वह शब्द है, उस शब्द के साथ में चित्र तो चला गया है। यदि वह शब्द कामना से भरा शब्द है तो उसका स्वरूप कुछ और बन जाता है। यदि इसी क्रोध के रूपों में रमण करने वाला है तो उसका कुछ और स्वरूप बन जाता है। पुत्रो! मैं इस विज्ञान में जाना नहीं चाहता। यह तो विशाल विज्ञान है। परन्तु विचार विनिमय केवल हमारा संक्षिप्त परिचय है कि वह जो शब्द के साथ में चित्र जाता है। वह रजो गुण, तमो गुण और सतो गुणी है। मानो सतो गुणी शब्द द्यौ लोक को चला जाता है। रजो गुणी और तमो गुणी जो शब्द हैं वह अन्तरिक्ष में छा जाता है और वही दैवी प्रकोप बन करके अतिवृष्टि में अनावृष्टि में, नाना प्रकार की आभाओं में मानव के समीप आ जाता है।
ऋत किसे कहते हैं? जैसे मानव भी, प्राणी भी एक दूसरे प्राणी का सहायक बना हुआ है, एक दूसरे की सहकारिता को धारण कर रहा है तो इसलिए हमें ऋत को जानना चाहिए।
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