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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 148 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 148/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पु॒रूणि॑ द॒स्मो नि रि॑णाति॒ जम्भै॒राद्रो॑चते॒ वन॒ आ वि॒भावा॑। आद॑स्य॒ वातो॒ अनु॑ वाति शो॒चिरस्तु॒र्न शर्या॑मस॒नामनु॒ द्यून् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒रूणि॑ । द॒स्मः । नि । रि॒णा॒ति॒ । जम्भैः॑ । आत् । रो॒च॒ते॒ । वने॑ । आ । वि॒भाऽवा॑ । आत् । अ॒स्य॒ । वातः॑ । अनु॑ । वा॒ति॒ । शो॒चिः । अस्तुः॑ । न । शर्या॑म् । अ॒स॒नाम् । अनु॑ । द्यून् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरूणि दस्मो नि रिणाति जम्भैराद्रोचते वन आ विभावा। आदस्य वातो अनु वाति शोचिरस्तुर्न शर्यामसनामनु द्यून् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुरूणि। दस्मः। नि। रिणाति। जम्भैः। आत्। रोचते। वने। आ। विभाऽवा। आत्। अस्य। वातः। अनु। वाति। शोचिः। अस्तुः। न। शर्याम्। असनाम्। अनु। द्यून् ॥ १.१४८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 148; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार जब हम प्रभु-दर्शन में प्रवृत्त होते हैं तब (दस्मः) = हमारे पापों व दुःखों का उपक्षय करनेवाले प्रभु (जम्भैः) = अपनी नाशक शक्तिरूप दाढ़ों से पुरूणि बहुत भी हमारे शत्रुओं को (निरिणाति) = हिंसित कर देते हैं और (आत्) = अब- कामादि शत्रुओं का विध्वंस करने के बाद वे (विभावा) = विशिष्ट दीप्तिवाले प्रभु (वने) = अपने उपासक में [वन सम्भजने] (आरोचते) = समन्तात् प्रकाश देनेवाले होते हैं । २. (आत्) = अब- प्रभु का प्रकाश होने पर (अस्य शोचिः अनु) = इसकी दीप्ति के अनुसार (वातः वाति) = यह क्रियाशील पुरुष क्रियावाला होता है। वायु की भाँति क्रिया करना इस उपासक का स्वभाव हो जाता है। मुख्यरूप से इसकी क्रिया (अनु द्यून्) = प्रतिदिन इस प्रकार होती है (न) = जैसे कि (अस्तुः) = बाणों को फेंकनेवाले की (असनाम्) = फेंके जानेवाली (शर्याम्) = बाण-समूह की क्रिया होती है। जैसे धनुर्धर लक्ष्य पर बाणों को फेंकता है, उसी प्रकार यह भक्त भी प्रणव [ओम्] को धनुष बनाता है, आत्मा को शर तथा ब्रह्म को लक्ष्य बनाकर अप्रमत्त होकर लक्ष्यवेध करता है और तन्मय होने का प्रयत्न करता है। जैसे शर लक्ष्य में प्रविष्ट हो जाता है । उसी प्रकार आत्मा परमात्मा में प्रविष्ट हो जाता है- परमात्मा के गर्भ में निवास करने लगता है ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु भक्त के कष्टों को दूर करते हैं, उसे दीस बनाते हैं। प्रभुदीप्ति के अनुसार भक्त के कार्य होते हैं। यह भक्त आत्मा को शर बनाकर प्रभुरूप लक्ष्य में प्रवेश के लिए यत्नशील होता है।

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