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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 149 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 149/ मन्त्र 1
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    म॒हः स रा॒य एष॑ते॒ पति॒र्दन्नि॒न इ॒नस्य॒ वसु॑नः प॒द आ। उप॒ ध्रज॑न्त॒मद्र॑यो वि॒धन्नित् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हः । सः । रा॒यः । आ । ई॒ष॒ते॒ । पतिः॑ । दन् । इ॒नः । इ॒नस्य॑ । वसु॑नः । प॒दे । आ । उप॑ । ध्रज॑न्तम् । अद्र॑यः । वि॒धन् । इत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महः स राय एषते पतिर्दन्निन इनस्य वसुनः पद आ। उप ध्रजन्तमद्रयो विधन्नित् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महः। सः। रायः। आ। ईषते। पतिः। दन्। इनः। इनस्य। वसुनः। पदे। आ। उप। ध्रजन्तम्। अद्रयः। विधन्। इत् ॥ १.१४९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 149; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. (सः) = वे प्रभु (महः राय:) = महान् ऐश्वर्य के (पतिः) = स्वामी हैं। वे प्रभु (दन्) = इस ऐश्वर्य को देते हुए (आ ईषते) = समन्तात् गति करते हैं। प्रभु ऐश्वर्य प्राप्त कराने के लिए हमें प्राप्त होते हैं। उस ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए हमें पात्र बनने का प्रयत्न करना चाहिए। वे प्रभु (इनस्य इनः) = स्वामियों के भी स्वामी हैं, ईश्वरों के भी ईश्वर = परमेश्वर हैं। (वसुन:) = ऐश्वर्य के (पदे) = आस्पद-स्थान में (आ) = पूर्णरूप से- व्यापकरूप से अधिष्ठित हैं। सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के स्वामी हैं । २. (उप ध्रजन्तम्) = समीप प्राप्त होते हुए उस प्रभु को (अद्रयः) = [आदृङ्] आदर देनेवाले = उपासक (इत्) = निश्चय से (विधन्) = पूजते हैं। प्रभुपूजन से लक्ष्मी की कमी नहीं रहती और साथ ही हम उस लक्ष्मी के दास भी नहीं बन जाते । प्रभुपूजक धनी होता हुआ भी धन में फँसता नहीं ।

    भावार्थ - भावार्थ – प्रभु सब ऐश्वर्यों के स्वामी हैं, अतः ज्ञानी उपासक ऐश्वर्य की उपासना न करके ऐश्वर्य के स्वामी प्रभु की ही उपासना करता है।

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