ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
सो॒मानं॒ स्वर॑णं कृणु॒हि ब्र॑ह्मणस्पते। क॒क्षीव॑न्तं॒ य औ॑शि॒जः॥
स्वर सहित पद पाठसो॒मान॑म् । स्वर॑णम् । कृ॒णु॒हि । ब्र॒ह्म॒णः॒ । प॒ते॒ । क॒क्षीव॑न्तम् । यः । औ॒शि॒जः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमानं स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते। कक्षीवन्तं य औशिजः॥
स्वर रहित पद पाठसोमानम्। स्वरणम्। कृणुहि। ब्रह्मणः। पते। कक्षीवन्तम्। यः। औशिजः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
विषय - सोमा - स्वरण - कक्षीवान - औशिज [विद्यार्थी]
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार जो मैं इन्द्रावरुण की सधस्तुति करता हूँ , अर्थात् जितेन्द्रिय व व्रती बनने का प्रयत्न करता हूँ उस मुझे हे (ब्रह्मणस्पते) - वेदज्ञान के रक्षक प्रभो! (सोमानं कृणुहि) - सोम बना दो , मुझे आप अत्यन्त सौम्य स्वभाव का बना दो । इस सौम्य स्वभाववाला बनने के लिए ही मैं सोम की रक्षा करनेवाला बनूं ।
२. (स्वरणम् कृणुहि) - आप मुझे [स्वृ शब्दे] उत्तम ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करनेवाला बनाइए तथा [सुश्चरणम्] उत्तम गतिवाला बनाइए । वस्तुतः उन ज्ञान की वाणियों के अनुसार ही मेरी क्रिया व चालचलन हो ।
३. (कक्षीवन्तम्) - [कक्ष्यावन्तम्] मेखलावाला , अर्थात् दृढनिश्चयी मुझे बनाइए ।
४. मुझे ऐसा बनाइए (यः) - जो (औशिजः) - उशिक्पुत्र होऊँ , अर्थात् अत्यन्त मेधावी होऊँ [नि० ३/१५] ।
५. पिछले मन्त्र के साथ मिलाकर प्रस्तुत मन्त्र की भावना यह है कि जब एक विद्यार्थी जितेन्द्रिय व व्रती बनता है तब ब्रह्मणस्पति आचार्य उस विद्यार्थी को सौम्य , स्वरण , दृढ़निश्चयी व मेधावी बनाता है ।
भावार्थ -
भावार्थ - आचार्य मुझे 'सौम्य , उत्तम गतिवाला , दृढनिश्चयी व मेधाबी' बनाए ।
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