ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 48/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - उषाः
छन्दः - विराट्पथ्याबृहती
स्वरः - मध्यमः
स॒ह वा॒मेन॑ न उषो॒ व्यु॑च्छा दुहितर्दिवः । स॒ह द्यु॒म्नेन॑ बृह॒ता वि॑भावरि रा॒या दे॑वि॒ दास्व॑ती ॥
स्वर सहित पद पाठस॒ह । वा॒मेन॑ । नः॒ । उ॒षः॒ । वि । उ॒च्छ॒ । दु॒हि॒तः॒ । दि॒वः॒ । स॒ह । द्यु॒म्नेन॑ । बृ॒ह॒ता । वि॒भा॒ऽव॒रि॒ । रा॒या । दे॒वि॒ । दास्व॑ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
सह वामेन न उषो व्युच्छा दुहितर्दिवः । सह द्युम्नेन बृहता विभावरि राया देवि दास्वती ॥
स्वर रहित पद पाठसह । वामेन । नः । उषः । वि । उच्छ । दुहितः । दिवः । सह । द्युम्नेन । बृहता । विभावरि । राया । देवि । दास्वती॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 48; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
विषय - सुन्दर ज्ञान व धन
पदार्थ -
१. हे (दिवः दुहितः) प्रकाश का प्रपूरण करनेवाली (उषः) = उषः काल ! (वामेन सह) = सब सुन्दर वस्तुओं के साथ (नः) = हमारे लिए (व्युच्छ) = तू अन्धकार को दूर करनेवाली हो, अर्थात् उषः काल हमें सुन्दर - ही - सुन्दर वस्तुओं को प्राप्त करानेवाली हो । २. हे (विभावरि) = प्रकाशयुक्त उषे ! तू (बृहता) = वृद्धि की कारणभूत (द्युम्नेन सह) = ज्योति के साथ अथवा अन्न के साथ हमारे लिए उदित हो । हमें इस उषः काल में वह ज्योति प्राप्त हो जो हमारी वृद्धि का कारण बने । हम उस अन्न को प्राप्त करें जो हमारी बुद्धि को सात्त्विक बनाए । ३. (देवि) = प्रकाशवाली अथवा सब उत्तम पदार्थों को प्राप्त करानेवाली उषे ! (दास्वती) = तू दानवती हुई - हुई (राया) = धन के साथ हमारे लिए उदित हो, अर्थात् हमें इस उषः काल में वह धन प्राप्त हो जो हमसे दानादि में विनियुक्त हो [दा दाने] ।
भावार्थ -
भावार्थ - हमें उषः काल में सब सुन्दर वस्तुएँ, ज्ञान तथा धन प्राप्त हों ।
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