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ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 49/ मन्त्र 4
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - उषाः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
व्यु॒च्छन्ती॒ हि र॒श्मिभि॒र्विश्व॑मा॒भासि॑ रोच॒नम् । तां त्वामु॑षर्वसू॒यवो॑ गी॒र्भिः कण्वा॑ अहूषत ॥
स्वर सहित पद पाठव्यि॒ऽउच्छन्ती॑ । हि । र॒श्मिऽभिः॑ । विश्व॑म् । आ॒ऽभासि॑ । रो॒च॒नम् । ताम् । त्वाम् । उ॒षः॒ । व॒सु॒ऽयवः॑ । गीः॒ऽभिः । कण्वाः॑ । अ॒हू॒ष॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
व्युच्छन्ती हि रश्मिभिर्विश्वमाभासि रोचनम् । तां त्वामुषर्वसूयवो गीर्भिः कण्वा अहूषत ॥
स्वर रहित पद पाठव्यिउच्छन्ती । हि । रश्मिभिः । विश्वम् । आभासि । रोचनम् । ताम् । त्वाम् । उषः । वसुयवः । गीःभिः । कण्वाः । अहूषत॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 49; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
विषय - वसूयवः कण्वाः
पदार्थ -
१. हे (उषः) = उषः काल ! तू (हि) = निश्चय से (रश्मिभिः) = प्रकाश की किरणों से (व्युच्छन्ती) = अन्धकार को दूर करती हुई (विश्वम्) = सम्पूर्ण संसार को (रोचनम्) = खूब दीप्ति के साथ (आभासि) = प्रकाशित करती है । २. हे उषे ! (तां त्वा) = उस तुझको (वसूयवः) = उत्तम निवासक तत्त्वों की कामनावाले (कण्वाः) = मेधावी पुरुष (गीर्भिः) = वाणियों से (अहूषत) = पुकारते हैं, अर्थात् मेधावी पुरुष प्रातः काल जागकर स्वाध्याय के लिए तैयारी करते हैं और ज्ञान की वाणियों का अध्ययन करते हुए अपने निवास को उत्तम बनाते हैं । इस निवास के उत्तम होने पर जीवन में उसी प्रकार प्रकाश का अनुभव होता है जैसेकि उषा अपने प्रकाश से जगत् को प्रकाशित करती है ।
भावार्थ -
भावार्थ - हम उषः काल में स्वाध्याय के द्वारा अपने अन्दर उसी प्रकार प्रकाश प्राप्त करें जैसे उषा बाह्य जगत् को प्रकाश प्राप्त कराती है ।
विशेष / सूचना -
विशेष - सूक्त का आरम्भ इस प्रकार हुआ है कि उषा हमें भद्रताओं को प्राप्त कराये [१] । हमारा शरीररूप रथ स्वास्थ्य के सौन्दर्यवाला और प्रशस्तेन्द्रियोंवाला हो [२] | यह उषा हमें गतिमय जीवन की प्रेरणा दे [३] । यह हमारे अन्तर्जगत् को भी उसी प्रकार प्रकाशित करे जैसेकि बाह्य जगत् को [४] । अब उषा के पश्चात् सूर्योदय होता है -