ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 83/ मन्त्र 1
अश्वा॑वति प्रथ॒मो गोषु॑ गच्छति सुप्रा॒वीरि॑न्द्र॒ मर्त्य॒स्तवो॒तिभिः॑। तमित्पृ॑णक्षि॒ वसु॑ना॒ भवी॑यसा॒ सिन्धु॒मापो॒ यथा॒भितो॒ विचे॑तसः ॥
स्वर सहित पद पाठअश्व॑ऽवति । प्रथमः । गोषु । गच्छति । सुप्रऽअवीः । इन्द्र । मत्यैः । तव॑ । ऊतिऽर्भिः । तम् । इत् । पृणति । वसु॑ना । भवीयसा । सिन्धुंम् । आर्पः । यर्था । अभितः । विऽचैतसः ॥१॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वावति प्रथमो गोषु गच्छति सुप्रावीरिन्द्र मर्त्यस्तवोतिभिः। तमित्पृणक्षि वसुना भवीयसा सिन्धुमापो यथाभितो विचेतसः ॥
स्वर रहित पद पाठअश्वऽवति। प्रथमः। गोषु। गच्छति। सुप्रऽआवीः। इन्द्र। मर्त्यः। तव। ऊतिऽभिः। तम्। इत्। पृणक्षि। वसुना। भवीयसा। सिन्धुम्। आपः। यथा। अभितः। विऽचेतसः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 83; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
विषय - भवीयस् वसु
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (तव ऊतिभिः) = आपके रक्षणों से (सुप्रावीः) = सुरक्षित (मर्त्यः) = मनुष्य (अश्वावति) = इस उत्तम इन्द्रियरूप अश्वों से युक्त रथ में (गोषु) = [गावः वेदवाचः] ज्ञान की वाणियों में अथवा [गम्यन्ते इति गावः] प्राप्त करने योग्य पदार्थों में (प्रथमः गच्छति) = सबसे प्रथम स्थान में स्थित हुआ - हुआ होता है । प्रभु से रक्षित व्यक्ति जहाँ [क] अपने इस शरीररूप रथ के इन्द्रियरूप घोड़ों को उत्तम बना पाता है [ख] वहाँ खूब ही ज्ञान प्राप्त करनेवाला होता है और [ग] सब प्राप्त करने योग्य पदार्थों की प्राप्ति में प्रथम होता है । हम प्रभु की उपासना करते हैं तो प्रभु का रक्षण प्राप्त होता है और हमारे जीवन में उल्लिखित तीन परिणाम होते हैं । २. (तम् इत्) = इस व्यक्ति को ही हे प्रभो ! आप (भवीयसा) [बहुतरेण भवितृतमेन वा = सा०, यदतिशयं भवति तेन = द०] बहुत अधिक अभ्युदय के कारणभूत, अतिशयित (वसुना) = धन से (पृणक्षि) = संयुक्त करते हैं । प्रभुकृपा से इस व्यक्ति को आभ्युदिक कल्याण के लिए पर्याप्त धन की प्राप्ति होती है । ३. आप इस व्यक्ति को इस प्रकार अतिशयित धन से युक्त करते हैं (यथा) = जिस प्रकार (विचेतसः) = स्वास्थ्य - प्रदान के द्वारा विशिष्ट ज्ञान के साधनभूत (आपः) = जल (सिन्धुम्) = समुद्र को (अभितः) सब ओर से प्राप्त होते हैं [पृञ्चन्ति] । समुद्र को नदियाँ जलों से भरती चलती हैं, परन्तु समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लङ्घन नहीं करता, इसी प्रकार इस व्यक्ति को धन खूब ही प्राप्त होता है, परन्तु यह उस धन से गर्वित व उच्छृङ्खल नहीं हो जाता । गीता में यह भावना इस प्रकार कही गई है - "आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी । " [गीता २/७०] चारों ओर से जलों से भरे जा रहे, परन्तु स्थिर मर्यादावाले समुद्र को जैसे जल प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार जिसे ये सब काम्य धन प्राप्त होते हैं, वही शान्ति को प्राप्त होता है, न कि निरन्तर कामनाएँ करनेवाला । बस, इस प्रभु से रक्षित व्यक्ति को खूब ही धन प्राप्त होते हैं, परन्तु ये धन उसके जीवन की मर्यादा को तोड़नेवाले नहीं होते ।
भावार्थ -
भावार्थ = हम प्रभुरक्षा के पात्र हों । हमारा शरीर = रथ उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाला हो । हम खूब ज्ञान प्राप्त करें । आभ्युदयिक धन की प्राप्ति हमें मर्यादित जीवनवाला ही रक्खे ।
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