ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
ऋषिः - यमी वैवस्वती
देवता - यमो वैवस्वतः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ओ चि॒त्सखा॑यं स॒ख्या व॑वृत्यां ति॒रः पु॒रू चि॑दर्ण॒वं ज॑ग॒न्वान् । पि॒तुर्नपा॑त॒मा द॑धीत वे॒धा अधि॒ क्षमि॑ प्रत॒रं दीध्या॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठओ इति॑ । चि॒त् । सखा॑यम् । स॒ख्या । व॒वृ॒त्या॒म् । ति॒रः । पु॒रु । चि॒त् । अ॒र्ण॒वम् । ज॒ग॒न्वान् । पि॒तुः । नपा॑तम् । आ । द॒धी॒त॒ । वे॒धाः । अधि॑ । क्षमि॑ । प्र॒ऽत॒रम् । दीध्या॑नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ओ चित्सखायं सख्या ववृत्यां तिरः पुरू चिदर्णवं जगन्वान् । पितुर्नपातमा दधीत वेधा अधि क्षमि प्रतरं दीध्यानः ॥
स्वर रहित पद पाठओ इति । चित् । सखायम् । सख्या । ववृत्याम् । तिरः । पुरु । चित् । अर्णवम् । जगन्वान् । पितुः । नपातम् । आ । दधीत । वेधाः । अधि । क्षमि । प्रऽतरम् । दीध्यानः ॥ १०.१०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
विषय - सन्तान का महत्त्व
पदार्थ -
[१] यमी यम से कहती है कि (उ चित्) = निश्चय से (सखायम्) = मित्रभूत तुझ को (सख्या) = मित्रभाव से (आववृत्याम्) = [आवर्तयामि सा० ] आवृत्त करती हूँ । 'पति पत्नी' परस्पर एक-दूसरे के सखा हैं, सप्तपदी के सातवें कदम में कहते हैं कि 'सखे सप्तपदी भव' । मित्रभाव से आवृत करने का अभिशय यही है कि तू मुझे पति रूप से प्राप्त हो । [२] इसलिए मैं तुझे पतिरूप से चाहती हूँ कि (पुरुचित्) = इस अत्यन्त विस्तृत (अर्णवम्) = संसार समुद्र को (जगन्वान्) = गया हुआ पुरुष (तिरः) = अन्तर्हित हो जाता है। टैनिसन एक स्थान पर लिखते हैं कि 'From great deep to the great deep he goes' मनुष्य एक महान् समुद्र से आता है, और थोड़ी-सी देर इस स्थल इस मध्य पर रहकर, दूसरे विस्तृत समुद्र में चला जाता है। न मनुष्य के आने का पता है, न जाने का; 'कहाँ से आया, कहाँ गया' यह सब अज्ञात ही है । सो मनुष्य मृत्यु पर संसार समुद्र में लीन हो जाता है और उसका कुछ पता नहीं कि वह कहाँ गया। [३] इस बात का ध्यान करके ही (प्रतरं दीध्यान:) = इस विस्तृत समुद्र का विचार करता हुआ (वेधाः) = बुद्धिमान् पुरुष (अधिक्षमि) = इस पृथ्वी पर (पितुः नपातम्) = पिता के न नष्ट होने देनेवाले सन्तान को (आदधीत) = आहित करता है। अर्थात् एक सन्तान को जन्म देता है और अपने इस नश्वर शरीर के नष्ट हो जाने पर भी उस सन्तान के रूप में बना ही रहता है । इसीलिए वह प्रार्थना भी करता है कि 'प्रजाभिरग्ने अमृतत्वमश्याम' हे प्रभो ! हम सन्तानों के द्वारा अमर बने रहें। [४] यमी की युक्ति संक्षेप में यह है कि - [क] इस विशाल संसार-समुद्र में मनुष्य कुछ देर के बाद तिरोहित हो जाता है । [ख] सन्तान के रूप में ही उसका चिह्न बचा रहता है। [ग] सो सन्तान प्राप्ति के लिये तू मुझे पत्नी के रूप में चाहनेवाला हो और मेरे में सन्तान का आधान कर ।
भावार्थ - भावार्थ- मनुष्य सन्तान के रूप में ही बना रहता है सो 'सन्तान प्राप्ति के लिये यम यमी की कामना करे' यह स्वाभाविक ही है।
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