ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 113/ मन्त्र 1
तम॑स्य॒ द्यावा॑पृथि॒वी सचे॑तसा॒ विश्वे॑भिर्दे॒वैरनु॒ शुष्म॑मावताम् । यदैत्कृ॑ण्वा॒नो म॑हि॒मान॑मिन्द्रि॒यं पी॒त्वी सोम॑स्य॒ क्रतु॑माँ अवर्धत ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । अ॒स्य॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । सऽचे॑तसा । विश्वे॑भिः । दे॒वैः । अनु॑ । शुष्म॑म् । आ॒व॒ता॒म् । यत् । ऐत् । कृ॒ण्वा॒नः । म॒हि॒मान॑म् । इ॒न्द्रि॒यम् । पी॒त्वी । सोम॑स्य । क्रतु॑ऽमान् । अ॒व॒र्ध॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमस्य द्यावापृथिवी सचेतसा विश्वेभिर्देवैरनु शुष्ममावताम् । यदैत्कृण्वानो महिमानमिन्द्रियं पीत्वी सोमस्य क्रतुमाँ अवर्धत ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । अस्य । द्यावापृथिवी इति । सऽचेतसा । विश्वेभिः । देवैः । अनु । शुष्मम् । आवताम् । यत् । ऐत् । कृण्वानः । महिमानम् । इन्द्रियम् । पीत्वी । सोमस्य । क्रतुऽमान् । अवर्धत ॥ १०.११३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 113; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
विषय - सचेतसा द्यावापृथिवी
पदार्थ -
[१] (अस्य) = इस 'शतप्रभेदन' के [ = शतशः अशुभ वृत्तियों का भेदन करनेवाले के] (सचेतसा) = समानरूप से चेत जानेवाले, जाग जानेवाले, विकसित शक्ति होनेवाले, (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क व शरीर (विश्वेभिः देवैः) = सब दिव्यगुणों के साथ (तम्) = उस (शुष्मम्) = शत्रु-शोषक बल को (अनु आवताम्) = अनुकूलता से रक्षित करनेवाले होते हैं। इसका मस्तिष्क रूप द्युलोक ज्ञान के सूर्य के उदय से जाग-सा उठता है, शरीर भी शक्ति से चेतन हो जाता है, स्फूर्ति-सम्पन्न हो जाता है ऐसा होने पर इसके हृदय में भी दिव्य भावनाओं का जागरण होता है । द्युलोक व पृथिवीलोक के ठीक होने से इसका अन्तरिक्षलोक भी ठीक हो जाता है। [२] यह सब होता तब है (यद्) = जब कि यह (महिमानम्) = [मह पूजायाम्] परमेश्वर की पूजा को (कृण्वानः) = करता हुआ (ऐत्) = गति करता है। इस प्रभु-पूजन के द्वारा यह (इन्द्रियम्) = वीर्य व बल को सम्पादित करता हुआ गति करता है। इस प्रकार प्रभु-पूजन से वासनाओं को विनष्ट करके यह (सोमस्य पीत्वी) = सोम का पान करके वीर्य का रक्षण करके (क्रतुमान्) = शक्ति व प्रज्ञावाला होता हुआ (अवर्धत) = निरन्तर बढ़ता है।
भावार्थ - भावार्थ- हम सोम का रक्षण करते हुए क्रतुमान् बनें। हृदय में हमारे प्रभु-पूजन का भाव हो, शरीर शक्ति सम्पन्न होकर कर्मव्यापृत हो ।
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