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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 115 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 115/ मन्त्र 1
    ऋषिः - उपस्तुतो वार्ष्टिहव्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    चि॒त्र इच्छिशो॒स्तरु॑णस्य व॒क्षथो॒ न यो मा॒तरा॑व॒प्येति॒ धात॑वे । अ॒नू॒धा यदि॒ जीज॑न॒दधा॑ च॒ नु व॒वक्ष॑ स॒द्यो महि॑ दू॒त्यं१॒॑ चर॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चि॒त्रः । इत् । शिशोः॑ । तरु॑णस्य । व॒क्षथः॑ । न । यः । मा॒तरौ॑ । अ॒पि॒ऽएति॑ । धात॑वे । अ॒नू॒धाः । यदि॑ । जीज॑नत् । अधा॑ । च॒ । नु । व॒वक्ष॑ । स॒द्यः । महि॑ । दू॒त्य॑म् । चर॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चित्र इच्छिशोस्तरुणस्य वक्षथो न यो मातरावप्येति धातवे । अनूधा यदि जीजनदधा च नु ववक्ष सद्यो महि दूत्यं१ चरन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चित्रः । इत् । शिशोः । तरुणस्य । वक्षथः । न । यः । मातरौ । अपिऽएति । धातवे । अनूधाः । यदि । जीजनत् । अधा । च । नु । ववक्ष । सद्यः । महि । दूत्यम् । चरन् ॥ १०.११५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 115; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] मानव जीवन का क्रमिक विकास दर्शाते हुए कहते हैं कि जीवन के प्रथमाश्रम में (इत्) = निश्चय से (इच्छिशो:) = [ शो तनूकरणे] बुद्धि को सूक्ष्म बनानेवाले तथा (तरुणस्य) = वासनाओं को तैरनेवाले विद्यार्थी का (वक्षथ) = [growth] विकास (चित्र:) = अद्भुत है। वस्तुतः जीवन के इस प्रथमाश्रम में दो ही महत्त्वपूर्ण बाते हैं— [क] विद्यार्थी को चाहिए कि वह विद्या पढ़ने के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की कामना न करे, विद्यारुचि होता हुआ वह अपनी बुद्धि को सूक्ष्म बनाए। [ख] तथा किसी भी वासना का शिकार न हो । विद्याव्यसन के अतिरिक्त उसे कोई भी व्यसन लगा तो वह विद्यार्थी ही न रहेगा। इस प्रकार शिशु और तरुण बनकर यह अपने जीवन का अद्भुत विकास कर पाता है। [२] अब गृहस्थ में प्रवेश करने पर यह इस प्रकार चलता है कि (या) = जो (धातवे) = अपने परिवार के धारण के लिए (मातरौ) = माता व सास की (अपि) = ओर (न एति) = नहीं जाता है । अपने पुरुषार्थ से कमानेवाला बनता है, अपने लिए औरों पर निर्भर नहीं करता । विशेषतः अपनी सास से कभी कुछ नहीं चाहता। [३] अब गृहस्थ के बाद (यदि) = यदि यह (अनूधा:) = [ऊधस् inuer apastment] अन्दर के कमरे से रहित जीजनत् हो जाता है । अर्थात् वानप्रस्थ बन जाता है और इसका घर 'आश्रम' में परिवर्तित हो जाता है । [४] वानप्रस्थ में साधना करके (अधा) = अब (च नु) = निश्चय से (ववक्ष) = आगे बढ़ता है, (सद्यः) = शीघ्र ही (महि दूत्यं चरन्) = महान् दूत कर्म को करता हुआ वह चलता है। प्रभु के सन्देश को सुनाता हुआ यह आगे और आगे बढ़ता है ।

    भावार्थ - भावार्थ - ब्रह्मचर्याश्रम में विद्या पढ़ता है, वासनाओं को तैरता है। गृहस्थ में श्रम से परिवार का पालन करता है । घर को आश्रम में परिवर्तित करके वानप्रस्थ की साधना करता है । अब प्रभु का दूत बनकर ज्ञान के सन्देश को फैलाता हुआ आगे बढ़ता है ।

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