ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 12/ मन्त्र 9
श्रु॒धी नो॑ अग्ने॒ सद॑ने स॒धस्थे॑ यु॒क्ष्वा रथ॑म॒मृत॑स्य द्रवि॒त्नुम् । आ नो॑ वह॒ रोद॑सी दे॒वपु॑त्रे॒ माकि॑र्दे॒वाना॒मप॑ भूरि॒ह स्या॑: ॥
स्वर सहित पद पाठश्रु॒धि । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । सद॑ने । स॒धऽस्थे॑ । यु॒क्ष्व । रथ॑म् । अ॒मृत॑स्य । द्र॒वि॒त्नुम् । आ । नः॒ । व॒ह॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । दे॒वपु॑त्रे॒ इति॑ दे॒वऽपु॑त्रे । माकिः॑ । दे॒वाना॑म् । अप॑ । भूः॒ । इ॒ह । स्याः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रुधी नो अग्ने सदने सधस्थे युक्ष्वा रथममृतस्य द्रवित्नुम् । आ नो वह रोदसी देवपुत्रे माकिर्देवानामप भूरिह स्या: ॥
स्वर रहित पद पाठश्रुधि । नः । अग्ने । सदने । सधऽस्थे । युक्ष्व । रथम् । अमृतस्य । द्रवित्नुम् । आ । नः । वह । रोदसी इति । देवपुत्रे इति देवऽपुत्रे । माकिः । देवानाम् । अप । भूः । इह । स्याः ॥ १०.१२.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 12; मन्त्र » 9
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
विषय - मधु-सन्दृशता
पदार्थ -
[१] ११.९ पर इस मन्त्र की व्याख्या हो चुकी है। इसका सामान्य अर्थ इस प्रकार है- 'प्रभु हमें प्रेरणा दें' इस बात को सुनकर प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! तू इस (सदने) = शरीररूप गृह में (सधस्थे) = मिलकर बैठने के स्थान हृदय में (नः श्रुधी) = हमारी बात को सुन । [२] (रथं युक्ष्व) = तू इस शरीर रूप रथ को जोत । तेरा यह रथ गतिशून्य न हो। [३] इस अपने रथ को (अमृतस्य द्रवित्नुम्) = अमृत का द्रावक बना । अर्थात् तेरे सब कार्य माधुर्य को लिये हुए हों। [४] (देवपुत्रे) = दिव्यगुणों व ज्ञान के प्रकाश से अपने को पवित्र व सुरक्षित करनेवाले (नः रोदसी) = हमारे मस्तिष्क व शरीर को आवह धारण कर। [५] (इह) = इस जीवन में तू (देवानाम्) = पवित्र जीवन वाले विद्वानों का (अपभूः) = निरादर करनेवाला (माकिः) = मत (स्या:) = हो । सदा सत्संग को करनेवाला बन ।
भावार्थ - भावार्थ- हम क्रियाशील बनें। हमारा व्यवहार मधुर हो । सदा हमें देवों का संग प्राप्त हो । सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है कि हम ऋत व सत्य के पालन शरीर व मस्तिष्क को सुन्दर बनाएँ, [१] हम सर्वाग्रणी व समझदार बनने का प्रयत्न करें, [२] गोदुग्ध व वनस्पति का ही सेवन हों, [३] हम मधुर बनें, [४] यशस्वी बल वाले हों, [५] प्रभु नाम-स्मरण दुष्कर है, परन्तु उसे करना तो है ही, [६] हम क्रियाशील हों व ज्ञान के उपासक हों, [७] निष्पापता से प्रभु-दर्शन करनेवाले हों, [८] सदा सत्संग में चलें, [९] नमन के द्वारा प्रभु से ज्ञान को प्राप्त करें ।
इस भाष्य को एडिट करें