ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 131/ मन्त्र 1
ऋषिः - सुकीर्तिः काक्षीवतः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अप॒ प्राच॑ इन्द्र॒ विश्वाँ॑ अ॒मित्रा॒नपापा॑चो अभिभूते नुदस्व । अपोदी॑चो॒ अप॑ शूराध॒राच॑ उ॒रौ यथा॒ तव॒ शर्म॒न्मदे॑म ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । प्राचः॑ । इ॒न्द्र॒ । विश्वा॑न् । अ॒मित्रा॑न् । अप॑ । अपा॑चः । अ॒भि॒ऽभू॒ते॒ । नु॒द॒स्व॒ । अप॑ । उदी॑चः । अप॑ । शू॒र॒ । अ॒ध॒राचः॑ । उ॒रौ । यथा॑ । तव॑ । शर्म॑न् । मदे॑म ॥
स्वर रहित मन्त्र
अप प्राच इन्द्र विश्वाँ अमित्रानपापाचो अभिभूते नुदस्व । अपोदीचो अप शूराधराच उरौ यथा तव शर्मन्मदेम ॥
स्वर रहित पद पाठअप । प्राचः । इन्द्र । विश्वान् । अमित्रान् । अप । अपाचः । अभिऽभूते । नुदस्व । अप । उदीचः । अप । शूर । अधराचः । उरौ । यथा । तव । शर्मन् । मदेम ॥ १०.१३१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 131; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
विषय - शत्रु - विजय
पदार्थ -
[१] (इन्द्र) = हे शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (विश्वान्) = सब (प्राच: अमित्रान्) = सामने से आनेवाले शत्रुओं को (अपनुदस्व) = परे धकेल दीजिये। इसी प्रकार (अभिभूते) = हे शत्रुओं का अभिभव करनेवाले प्रभो ! (अपाचः) = दाहिनी ओर से आनेवाले शत्रुओं को भी (अप) = दूर करिये। (उदीचः) = उत्तर की ओर से आनेवाले शत्रुओं को (अप) = दूर करिये। हे शूर शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! (अधराचः) = पश्चिम से [सूर्य जिस दिशा में नीचे जाता प्रतीत होता है, अधर] आते हुए शत्रुओं को भी (अप) = दूर करिये। सब दिशाओं से आक्रमण करनेवाले इन शत्रुओं को हमारे पृथक् करिये। [२] इन सब काम, क्रोध, लोभ, मोह, (मद) = मत्सर आदि शत्रुओं से अपराजित हुए हुए हम (यथा) = जिस प्रकार (तव) = आपकी (उरौ) = विशाल (शर्मन्) = शरण में (मदेम) = आनन्द से रहें, ऐसी आप कृपा कीजिये ।
भावार्थ - भावार्थ - चारों दिशाओं से होनेवाले शत्रुओं के आक्रमण से हम बचें। सदा प्रभु की शरण में सानन्द रहें ।
- सूचना - राजा को भी राष्ट्र की चारों दिशाओं से रक्षा करनी है। सारी प्रजाएँ राजा से रक्षित हुई हुई आनन्द से वृद्धि को प्राप्त करें ।
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