ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 137/ मन्त्र 1
ऋषिः - सप्त ऋषय एकर्चाः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
उ॒त दे॑वा॒ अव॑हितं॒ देवा॒ उन्न॑यथा॒ पुन॑: । उ॒ताग॑श्च॒क्रुषं॑ देवा॒ देवा॑ जी॒वय॑था॒ पुन॑: ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । दे॒वाः॒ । अव॑ऽहितम् । देवाः॑ । उत् । न॒य॒थ॒ । पुन॒रिति॑ । उ॒त । आगः॑ । च॒क्रुष॑म् । दे॒वः॒ । देवाः॑ । जी॒वय॑थ । पुन॒रिति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुन: । उतागश्चक्रुषं देवा देवा जीवयथा पुन: ॥
स्वर रहित पद पाठउत । देवाः । अवऽहितम् । देवाः । उत् । नयथ । पुनरिति । उत । आगः । चक्रुषम् । देवः । देवाः । जीवयथ । पुनरिति ॥ १०.१३७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 137; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
विषय - पुनर्जीवन
पदार्थ -
[१] शरीर में सब देवताओं का वास है। सूर्य इसमें चक्षुरूप से तो वायु प्राणों के रूप से तथा अग्नि वाणी के रूप से रह रही है। इसी प्रकार अन्य देव भी भिन्न-भिन्न रूपों में यहाँ रहते हैं। इन बाह्य देवों का अन्तर्देवों से मेल बना रहे तो मनुष्य स्वस्थ होता है, अन्यथा अस्वस्थ । चन्द्रमा मन रूप से रहता है। इनकी अनुकूलता के न रहने पर मन विकृत हो जाता है और उसमें अशुभ वृत्तियाँ पनपने लगती हैं। सो देवों से कहते हैं कि हे (देवा:) = देवो ! (उत अवहितम्) = जो रुग्ण होकर नीचे खाट पर पड़ गया है उसे भी (पुनः उन्नयथा) = फिर से उठा दो। [२] और (देवाः) = हे देवो! आप (आगः चक्रुषम् उत) = अपराध को कर चुके हुए इस व्यक्ति को भी (उन्नयथा) = उठाओ। इसकी इन अशुभ वृत्तियों को दूर कर दो, [२] हे (देवाः देवा:) = सब देवो ! आप इसे (पुनः) = फिर से (जीवयथा) = जिला दो । व्याधियों ने इसे शारीरिक दृष्टि से तथा आधियों ने मानस दृष्टि से गिरा रखा था, आप कृपा करके इसे आधि-व्याधि से ऊपर उठाकर फिर से नया जीवन प्रदान करनेवाले होवो |
भावार्थ - भावार्थ- सब प्राकृतिक देवों की अनुकूलता से हमें पुनर्जीवन प्राप्त हो ।
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