ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 156/ मन्त्र 1
अ॒ग्निं हि॑न्वन्तु नो॒ धिय॒: सप्ति॑मा॒शुमि॑वा॒जिषु॑ । तेन॑ जेष्म॒ धनं॑धनम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । हि॒न्व॒न्तु॒ । नः॒ । धियः॑ । सप्ति॑म् । आ॒शुम्ऽइ॑व । आ॒जिषु॑ । तेन॑ । जे॒ष्म॒ । धन॑म्ऽधनम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं हिन्वन्तु नो धिय: सप्तिमाशुमिवाजिषु । तेन जेष्म धनंधनम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम् । हिन्वन्तु । नः । धियः । सप्तिम् । आशुम्ऽइव । आजिषु । तेन । जेष्म । धनम्ऽधनम् ॥ १०.१५६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 156; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
विषय - धनों का विजय
पदार्थ -
[१] (नः) = हमारी (धियः) = बुद्धियाँ अपने अन्दर (अग्निं हिन्वन्तु) = उस प्रभु को प्रेरित करें व उस प्रभु की भावना का वर्धन करें। अर्थात् हम अपने हृदयों में प्रभु का चिन्तन करें। जो प्रभु (आजिषु) = संग्रामों में (आशुं सप्तिं इव) = [ अशू व्याप्तौ ] शीघ्र गतिवाले अश्व के समान हैं। जैसे अश्व से संग्राम में विजय प्राप्त होती है, इसी प्रकार प्रभु के द्वारा हम अध्यात्म-संग्रामों में विजय को प्राप्त करते हैं । [२] (तेन) = उस प्रभु के द्वारा हम (धनं धनम्) = प्रत्येक जीवन को धन्य बनानेवाले धन को (जेष्म) = जीतनेवाले हों । प्रभु ही भगवान् हैं, वे ही आवश्यक भगों-ऐश्वर्यों को प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु का हृदयों में चिन्तन करते हुए हम काम-क्रोध आदि को पराजित कर पायें और सब धनों का विजय करें।
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