ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
मैन॑मग्ने॒ वि द॑हो॒ माभि शो॑चो॒ मास्य॒ त्वचं॑ चिक्षिपो॒ मा शरी॑रम् । य॒दा शृ॒तं कृ॒णवो॑ जातवे॒दोऽथे॑मेनं॒ प्र हि॑णुतात्पि॒तृभ्य॑: ॥
स्वर सहित पद पाठमा । ए॒न॒म् । अ॒ग्ने॒ । वि । द॒हः॒ । मा । अ॒भि । शो॒चः॒ । मा । अ॒स्य॒ । त्वच॑म् । चि॒क्षि॒पः॒ । मा । शरी॑रम् । य॒दा । शृ॒तम् । कृ॒णवः॑ । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । अथ॑ । ई॒म् । ए॒न॒म् । प्र । हि॒णु॒ता॒त् । पि॒तृऽभ्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मैनमग्ने वि दहो माभि शोचो मास्य त्वचं चिक्षिपो मा शरीरम् । यदा शृतं कृणवो जातवेदोऽथेमेनं प्र हिणुतात्पितृभ्य: ॥
स्वर रहित पद पाठमा । एनम् । अग्ने । वि । दहः । मा । अभि । शोचः । मा । अस्य । त्वचम् । चिक्षिपः । मा । शरीरम् । यदा । शृतम् । कृणवः । जातऽवेदः । अथ । ईम् । एनम् । प्र । हिणुतात् । पितृऽभ्यः ॥ १०.१६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
विषय - तप-दण्ड व समावर्तन
पदार्थ -
[१] गत सूक्त की समाप्ति पर 'असुनीति' के अध्ययन का उल्लेख था । ज्ञान के देनेवाले आचार्य भी पितर हैं। इन्हें 'अग्नि' भी कहते हैं, क्योंकि ये विद्यार्थी को ज्ञान के मार्ग पर आगे ले चलते हैं। माता-पिता बालक को आचार्य के समीप पहुँचा देते हैं, आचार्य के प्रति उसका अर्पण ही कर देते हैं। वह आचार्य विद्यार्थी को तपस्वी जीवनवाला बनाता है। बिना तप के विद्या के अध्ययन का सम्भव भी तो नहीं। परन्तु यह भी आवश्यक है कि आचार्य विद्यार्थी को इतने अतिमात्र तप में न ले चले कि उसका शरीर अत्यन्त क्षीण व समाप्त ही हो जाए । सो मन्त्र में कहते हैं कि (अग्ने) = हे अग्रेणी आचार्य ! (एनम्) = इस आपके प्रति अर्पित शिष्य को (मा विदहः) = तपस्या की अग्नि में भस्म ही न कर दीजिये, तप वही तो ठीक है जो कि शरीर को पीड़ित न कर दे। इस अतिमात्र तप से तंग आकर इस विद्यार्थी का जीवन दुःखी न हो जाए। (मा अभिशोचः) = इसे शोकयुक्त न कर दीजिये। यह घर की ही न याद करता रहे। [२] तप के अतिरिक्त शिक्षा में दण्ड भी अनिवार्य हो जाता है। आदर्श तो यही है कि दण्ड का स्थान हो ही न । परन्तु मानव स्वभाव की कमी दण्ड को भी आवश्यक ही कर देती है । परन्तु आचार्य कहीं क्रोध में दण्ड की भी अधिकता न कर दें, सो मन्त्र में कहते हैं कि (अस्य त्वचं मा चिक्षिपः) = इस की त्वचा को ही क्षिप्त न कर देना, चमड़ी ही न उधेड़ देना। इस बात का पूरा ध्यान करना कि (मा शरीरम्) = इस का शरीर विक्षिप्त न हो जाए, अर्थात् इसका कोई अंग भंग न हो जाए। संक्षेप में, न तप ही अतिमात्र हो और ना दण्ड। शरीर को अबाधित करनेवाला तप हो और अमृतमय हाथों से ही दण्ड दिया जाये । [३] इस प्रकार तप व दण्ड की उचित व्यवस्था से (यदा) = जब, हे (जातवेदः) = ज्ञानी आचार्य ! आप (शृतं कृणवः) = इस विद्यार्थी को ज्ञान में परिपक्व कर चुकें, अथा तो (ईम्) = अब (एनम्) = इस विद्यार्थी को (पितृभ्यः) = इसके जन्मदाता माता-पिता के लिये (प्रहिणुतात्) = आप भेजनेवाले हों । ज्ञान देने के बाद आचार्य विद्यार्थी को वापिस पितृगृह में भेजता है । यही बालक का समावर्तन होता है।
भावार्थ - भावार्थ - आचार्य उचित तप व दण्ड व्यवस्था को रखते हुए विद्यार्थी को ज्ञान परिपक्व करते हैं, और इस अध्ययन की समाप्ति पर उसे वापिस पितृगृह में भेजते हैं।
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