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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 168 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 168/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अनिलो वातायनः देवता - वायु: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वात॑स्य॒ नु म॑हि॒मानं॒ रथ॑स्य रु॒जन्ने॑ति स्त॒नय॑न्नस्य॒ घोष॑: । दि॒वि॒स्पृग्या॑त्यरु॒णानि॑ कृ॒ण्वन्नु॒तो ए॑ति पृथि॒व्या रे॒णुमस्य॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वात॑स्य । नु । म॒हि॒मान॑म् । रथ॑स्य । रु॒जन् । ए॒ति॒ । स्त॒नय॑न् । अ॒स्य॒ । घोषः॑ । दि॒वि॒ऽस्पृक् । या॒ति॒ । अ॒रु॒णानि॑ । कृ॒ण्वन् । उ॒तो इति॑ । ए॒ति॒ । पृ॒थि॒व्या । रे॒णुम् । अस्य॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वातस्य नु महिमानं रथस्य रुजन्नेति स्तनयन्नस्य घोष: । दिविस्पृग्यात्यरुणानि कृण्वन्नुतो एति पृथिव्या रेणुमस्यन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वातस्य । नु । महिमानम् । रथस्य । रुजन् । एति । स्तनयन् । अस्य । घोषः । दिविऽस्पृक् । याति । अरुणानि । कृण्वन् । उतो इति । एति । पृथिव्या । रेणुम् । अस्यन् ॥ १०.१६८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 168; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (रथस्य) = शरीर-रथ की वातस्य वायु की, अर्थात् प्राण की (नु) = अब (महिमानम्) = महिमा को देखो। [क] (रुजन् एति) = यह प्राण रोगों का भंग करता हुआ गति करता है। अर्थात् प्राण रोगकृमियों के विनाश के द्वारा रोगों को समाप्त करता है। [ख] (अस्य घोषः स्तनयन्) = इस प्राण का घोष बादल की गर्जना के समान होता है। प्राणशक्ति के होने पर स्वर में भी उच्चता होती है। [ग] यह प्राण (अरुणानि कृण्वन्) = तेजस्विताओं को उत्पन्न करता हुआ (दिविस्पृक्) = द्युलोक, अर्थात् मस्तिष्क को स्पृष्ट करनेवाला होता है। अर्थात् ये प्राण शरीर को तेजस्वी बनाते हैं और मस्तिष्क को ज्ञानदीप्त करते हैं । [घ] (उत उ) = और निश्चय से यह प्राण (पृथिव्या:) = इस पृथिवीरूप शरीर से (रेणुं अस्यन्) = धूल, अर्थात् मल को परे फेंकता है। मल शोधन का कार्य इस अपान का है । प्राण शक्ति का संचार करता है तो अपान मलों को दूर करता है । [२] प्राण के उल्लिखित लाभों का ध्यान करते हुए यह आवश्यक है कि प्राणसाधना के द्वारा हम नीरोग बनें, वाणी की शक्ति को प्राप्त करें, तेजस्वी हों, दीप्त मस्तिष्क बनें तथा शरीर से मलों का दूरीकरण करें।

    भावार्थ - भावार्थ- प्राणों की महिमा का ध्यान करते हुए हम प्राणसाधना को करनेवाले बनें।

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