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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 175/ मन्त्र 1
प्र वो॑ ग्रावाणः सवि॒ता दे॒वः सु॑वतु॒ धर्म॑णा । धू॒र्षु यु॑ज्यध्वं सुनु॒त ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वः॒ । ग्रा॒वा॒णः॒ । स॒वि॒ता । दे॒वः । सु॒व॒तु॒ । धर्म॑णा । धूः॒ऽसु । यु॒ज्य॒ध्व॒म् । सु॒नु॒त ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वो ग्रावाणः सविता देवः सुवतु धर्मणा । धूर्षु युज्यध्वं सुनुत ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । वः । ग्रावाणः । सविता । देवः । सुवतु । धर्मणा । धूःऽसु । युज्यध्वम् । सुनुत ॥ १०.१७५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 175; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
विषय - उपासना से प्रेरणा की प्राप्ति
पदार्थ -
[१] हे (ग्रावाणः) = स्तोता लोगो ! (सविता देवः) = वह प्रेरक प्रकाश का पुञ्ज प्रभु (वः) = आपको (धर्मणा) = धारणात्मक कर्मों के हेतु से (प्र सुवतु) = प्रकृष्ट प्रेरणा दे। उस प्रभु की प्रेरणा से तुम धारणात्मक कार्यों में प्रवृत्त होवो । [२] उस प्रभु की प्रेरणा के अनुसार (धूर्षु युज्यध्वम्) = धुरों में जुत जाओ, अपने-अपने कार्य को करने में प्रवृत्त हो जाओ। इन कार्यों को करने के लिये शक्ति को प्राप्त करने के लिये ही सुनुत सोम का सम्पादन करो, अपने अन्दर इस सोम शक्ति का [वीर्य का] रक्षण करो ।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु का उपासन करें, प्रभु से प्रेरणा को प्राप्त करके धारणात्मक कर्मों में जुट जायें, इन कार्यों को कर सकने के लिये सोम का [वीर्य का] सम्पादन व रक्षण करें।
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